Molitics News

महाशिवरात्रि है स्त्री के चयन के अधिकार का उत्सव!

इस साल अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस यानी 8 मार्च को महाशिवरात्रि भी पड़ी है। महाशिवरात्रि शिवपार्वती के विवाह का दिन माना जाता है। यह विवाह, स्त्री के चयन के अधिकार की सामाजिक स्वीकृति की कथा है। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मूल में भी महिलाओं के चयन के अधिकार की पताका फहरा रही है। 

पार्वती यानी एक राजा की बेटी ने तय किया कि उसे अघोरी शिव से विवाह करना है। पार्वती ने वर्ग,जाति, और सम्प्रदाय की दीवार तोड़कर सिर्फ़ प्रेम  को महत्व दिया। दोनों का दाम्पत्य ऐसा कि हर कथा में साथसाथ हैं। पार्वती के प्रश्नों से घिरे शिव हमेशा जनकल्याण की दिशा पकड़ते हैं। पार्वती के बिना शिव की कल्पना नहीं का जा सकती।

महाशिवरात्रि पर शहरशहर निकलने वाली शिव बरातों और सजेधजे शिवालों की धूम में खोई हुई यह कथा आधुनिक समाज के लिए बड़े काम की है। न सिर्फ़ शिवपार्वती विवाह बल्कि शिव परिवार में दर्ज सहअस्तित्व का भाव एक ऐसा आदर्श है जिससे विमुख होने की बड़ी क़ीमत समाज को चुकानी पड़ी है।।

पार्वती प्रेम के इतिहास की आदि विद्रोही हैं। पर्वतराज हिमवान की बेटी पार्वती एक ऐसे व्यक्ति से विवाह करने के लिए तप करती है जो सामाजिक कसौटी के लिहाज से कहीं से भी उसके योग्य नहीं हैं। लेकिन वह अडिग है। मलंग और भिखारी जैसे शिव से विवाह करने के लिए वे तमाम प्रलोभनों को ठुकराती हैं। यहाँ तक कि विष्णु जैसेसद्गुणों के धामसे भी विवाह में भी वह रुचि नहीं दिखातीं, क्योंकिमन तो कहीं और रमाहै।

तुलसीकृत रामचरित मानस के बालकांड में इसका सुंदर वर्णन है। ऋषिगण पार्वती के शिव प्रेम की परीक्षा लेने के लिए विष्णु से शादी कराने का प्रलोभन देते हैं। पार्वती जवाब देती हैं

महादेव अवगुन भवन, बिष्नु सकल गुन धाम
जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम।

(माना कि महादेव अवगुणों की खान हैं और विष्णु समस्त सद्गुणों के धाम हैं, पर जिसका मन जिसमें रम गया, उसको तो उसी से काम है।)

पार्वती को शिव और विवाह के भविष्य को लेकर तरहतरह से डराया जाता है, लेकिन वे ज़रा भी नहीं डिगतीं। परिवार के लिए उनका यह फ़ैसला शोक का विषय है पर उनके कठोर संकल्प के आगे सब लाचार हो जाते हैं। विवाह की तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं।

विस्तार में न जाकर अब ज़रा बरात का हाल देखें। एक राजकुमारी से विवाह करने जा रहे शिव बरात का हाल जब नगर के बालक देखते हैं कहते हैं

तन छार ब्याल कपाल भूषण नगन जटिल भयंकरा।
सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि बिकट मुख रजनीचरा।।
जो जिअत रहिहि बरात देखत पुण्य बड़ तेहि कर सही।
देखिहि सो उमा बिबाहु घर घर बात असि लरिकन्ह कही।।

(दूल्हे के शरीर पर राख लगी है, साँप और कपाल के गहने हैं। वह नंगा, जटाधारी और भयंकर है। उसके साथ भयानक मुखवाले भूत, प्रेत, पिशाच, योगिनियाँ और राक्षस हैं। जो बरात को देखकर जीता बचेगा, सचमुच उसके बड़े ही पुण्य हैं और वही पार्वती विवाह देखेगा। लड़कों ने घरघर यही बात कही।)

स्पष्ट है कि शिव और पार्वती, दोनों की पृष्ठभूमि अलग है, पर मन रम गया है। परिवार भी विधाता की इच्छा मानकर रोतेकलपते ही इस रिश्ते को स्वीकार करता है। माँ मैना का करुण क्रंदन किसी का भी मन व्यथित कर सकता है। लेकिन पार्वती को विदा करते हुए वे एक ऐसी बात कहती हैं जिसमें स्त्री जीवन का सारा मर्म छिपा है, कम से कम इस कथा की रचना करने वालों के समय का सच तो यही था।

कत विधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।
भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसुमय बिचारी।।

(विधाता ने जगत में स्त्री जाति को क्यों पैदा किया। पराधीन को सपने में भी सुख नहीं मिलता। प्रेम में विकल लेकिन उचित समय न जानकर धीरज धर लिया।)

हिंदी के अनन्य कवि गोरख पांडेय अपने लेखसुख के बारे मेंकी शुरूआत इसी सूत्र से करते हैं। पराधीन सुखी नहीं हो सकता, इसका अर्थ है कि सुख स्वाधीनता में है। सुख की पहली शर्त स्वाधीन होना है। स्त्री के संदर्भ में तो ख़ासतौर पर।

बहरहाल, कुल के बाहर हुए इस विवाह में आगे की कथा स्वाधीनता और सहकार की है।

शिव परिवार का चित्र  ग़ौर से देखिये। पार्वती शिव के पैर दबाते हुए शैया पर नहीं हैं, बल्कि उनके बराबर बैठी हुई हैं। हिमालय की कंदरा में यानी प्रकृति की गोद में यह परिवार बसा है। पूरे चित्र को ग़ौर से देखने पर मनुष्य, प्रकृति और पशु जगत के सहअस्तित्व का संदेश साफ़ दिखता है। शिव के गले में साँप है और साँप को खाने वाला मोर कार्तिकेय की सवारी है। वहीँ पार्वती की सवारी शेर है तो शिव का नंदी बैल। शेर और बैल साथ हैं। गणेश की सवारी चूहा है जिसे साँप खाता है जो शिव के गले में पड़ा है। यानी सामान्य जीवन में एक दूसरे को भोजन बनाने वालेशिव परिवारमें सहकारी भाव से बैठे हैं।

कहते हैं कि शिव अनार्य देवता हैं। आर्यों के आगमन के पूर्व भारत के मूल निवासियों के बीच उनकी पूजा प्रचलित थी। शिव लिंग की पूजा प्रजनन प्रक्रिया को पूजने की आदिम समझ का ही प्रतीक है। ख़ैर, अकादमिक जगत में इन चीज़ों पर बहस होती रहती हैं। सवाल तो उस संदेश का है जो मौजूदा समय में किसी वैक्सीन की तरह है

स्त्री को बिना जातिधर्मनस्ल की बाधा के पति चुनने का अधिकार, और प्रकृति, मनुष्य और पशु जगत में सहकार!

काश लव में जिहाद ढूंढने वाले इस विकट समय में  इस धर्मकथा का मर्म समझा जा सकता। सहअस्तित्व मनुष्यता ही नहीं इस पृथ्वी ग्रह को बचाने की भी शर्त हैं। 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *