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आर्टिकल को बिना जाँचे हटाने का फ़ैसला मौत की सज़ा के बराबर – सुप्रीम कोर्ट 

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि किसी आर्टिकल की जांच के बिना, उस पर रोक लगाना अभिव्यक्ति की आज़ादी के ख़िलाफ़ और  मौत की सजा देने के बराबर है। अंतर्राष्ट्रीय मीडिया संस्थान ब्लूमबर्ग की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च अदालत ने यह टिप्पणी की और ज़ी एंटरटेनमेंट के ख़िलाफ़ छपे एक आर्टिकल को उसके प्लेटफार्म से हटाने के निचली अदालत और हाईकोर्ट के आदेश को पलट दिया। फ़ैसला करने वाली पीठ में मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चंद्रचूड़ के अलावा जस्टिस जे.बी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा शामिल थे।

 

 क्या है पूरा मामला  

21 फरवरी को ब्लूमबर्ग ने ज़ी एंटरटेनमेंट के ख़िलाफ़ एक आर्टिकल प्रकाशित किया था। इसमें लिखा गया था कि सिक्योरिटी एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया (SEBI) ने ज़ी एंटरटेनमेंट लिमिटेड के खाते में 241 मिलियन डॉलर की गड़बड़ पायी थी। ज़ी कंपनी ने ब्लूमबर्ग के आरोप को ग़लत और फर्जी बताते हुए निचली अदालत से निषेधाज्ञा यानी लेख को हटाने का आदेश देने की अपील की थी।


निचली अदालत का निर्देश

इस मामले में 28 फरवरी को निचली अदालत में सुनवाई हुई थी। अदालत ने आदेश दिया था कि ब्लूमबर्ग विवादास्पद आर्टिकल को एक हफ़्ते के अंदर हटा दे। ब्लूमबर्ग ने इस आदेश के ख़िलाफ़ हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। लेकिन  14 मार्च को सुनवाई करते हुए उच्च न्यायलय ने निचली अदालत के फैसले को सही माना था। 

 

एक पक्षीय आधार पर रोक सही नहीं 

ब्लूमबर्ग ने निचली अदालत और उच्च न्यायालय के फैसलों के खिलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अदालत द्वारा लगाई गई रोक एक पक्ष की दलील के आधार पर नहीं होना चाहिए। जब तक यह स्पष्ट न हो जाये कि ख़बर ‘झूठी’ या ‘दुर्भावनापूर्ण’ है तब तक उसपर रोक लगाने का आदेश नहीं देना चाहिए। अगर बिना जांच और बहस के रोक लगाने जैसे आदेश पारित होंगे, तो यह फ़ैसला “सार्वजनिक बहस का गला घोटने” जैसा होगा। मुख्य न्यायधीश चंद्रचूड़ ने कहा कि अदालतों को असाधारण मामलों को छोड़कर एकपक्षीय आधार पर रोक  नहीं लगानी चाहिए। 

सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि ट्रायल जज को सभी तथ्यों के आधार पर विश्लेषण करना चाहिए था। यह एक मीडिया प्लेटफॉर्म के ख़िलाफ़ मानहानि है जो अभिव्यक्ति के अधिकार को भी दायरे में लाता है। ऐसे में इस मामलें में हस्तक्षेप  करना जरुरी है।

सर्वोच्च अदालत ने कहा कि ज़ी को नये सिरे से ट्रायल कोर्ट में अपील करने की स्वतंत्रता है।

 

क्या है निषेधाज्ञा

निषेधाज्ञा अदालत द्वारा दिया गया एक आदेश होता है जो किसी ग़लत कार्य को जारी रखने पर रोक लगाता है। यदि किसी पक्ष द्वारा अदालत की इस निषेधाज्ञा का पालन नहीं किया जाता है, तो यह अदालत  की अवमानना माना जाता है। 

अभिव्यक्ति की आज़ादी के मामले में सुप्रीम कोर्ट का यह एक अहम् आदेश है। जिससे मीडिया समूहों के ख़िलाफ़ दुर्भावनापूर्ण उद्देश्य से की जानें वाली शिक़ायतों  पर गंभीरता से जांच की जा सकेगी। यह मीडिया की स्वतंत्रता को तो सुरक्षित रखेगा ही प्रकाशन और  ख़बर पहुंचाने के अधिकार को भी मज़बूत बनायेगा। 

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