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MSP के लिए सड़क पर क्यों हैं दुनिया भर के किसान?

किसानों का आंदोलन जो सिर्फ भारत में नहीं दुनिया के कई देशों में चल रहे हैं। किसानों और उनके न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) का मुद्दा तेजी से ज़ोर पकड़ रहा है। हाल में हरियाणा और पंजाब के शंभू बॉर्डर पर हुए किसानों के प्रदर्शन के बीच एक किसान की शहादत भी हुई। आखिर किसानों का मसला हल क्यों नहीं होता? जिन्हें हम कथित तौर पर विकसित देश कहते हैं,वहां के किसान क्यों सड़क पर हैं? इन तमाम मुद्दों पर हमारे सलाहकार संपादक डॉ.पंकज श्रीवास्तव ने बात की वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश के.रे के साथ। पेश है इस वीडियो इंटरव्यू का अंश-        

डॉ.पंकज श्रीवास्तव: भारत का किसान संगठन न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) कि मांग कर रहा है, सरकार को इससे दिक्कत क्या है? मध्यम वर्ग के बीच ऐसा प्रचार किया जा रहा है कि इससे महँगाई बढ़ जाएगी। इस के बारे में आपकी  कि क्या राय है? 

प्रकाश के रे: पिछला किसान आंदोलन 2020-21 में हुआ था। उस समय एक कमेटी बनाई गई थी लेकिन अभी तक उसकी रिपोर्ट नहीं आई। अगर किसान संगठन कमेटी में शामिल होते तो पता चलता कि एमएसपी देने के पक्ष में या न देने के पक्ष में क्या तर्क है। हमारे यहां  एमएसपी कि  व्यवस्था पहले से ही है। अनुराग ठाकुर ने कहा कि गन्ने पर लाभकारी मूल्य एक तरीके की कानूनी गारंटी है। उससे कम पैसा मिल मालिक किसान को नहीं दे सकते। राज्य सरकार भी मिल कंपनियों के लिए एक मूल्य जारी करती है, जिससे कम पैसे किसानों को नहीं दे सकते। कुछ प्रोडक्शन जैसे कपास, नारियल, कॉफी की खरीदारी में कोई परेशानी आती है तो सरकार इनके बोर्ड से खरीदने के लिए बोलती है। अगर इन संस्थान को बेचने में कोई परेशानी आती है तो सरकार इसकी भरपाई करेगी। अगर गन्ना किसानों का भुगतान समय पर नहीं होता तो इस पर जुर्माना भी लगाया जाता है। कभी कभी  किसान और मिल मालिक आपस में मिलकर भी मूल्य तय कर लेते है। दुनिया भर में जो किसान आंदोलन चल रहे उसका कारण भी यही कि एमएसपी को सही तरीके से लागू नहीं किया जा रहा। कुछ समय पहले चीनी कि क़ीमत बढ़ने लगी जिससे गन्ने की  खरीद पर असर पड़ सकता है और लगने लगा कि मिल मालिक चिंता में है। तब भारत सरकार ने एक मूल्य जारी किया  कि इतने से कम में चीनी नहीं बेच सकेंगे। अगर सरकार को ऐसा लगता है एमएसपी से कोई हल नहीं निकल सकता तो सरकार कोई दूसरा तरीका भी अपना सकती है। लेकिन किसान एमएसपी कि मांग को लेकर ही अड़े हुए है। किसानों को ऐसा लगता है कि एमएसपी से उन्हें एक विश्वास हो जाता कि उनकी फसल की कीमत सही दाम में बिक सके। सरकार अपने राशन योजना के लिए तो अनाज  खरीदती ही है। बज़ार में जिस अनाज के मूल्य पर दाम मिले उसका भी कोई निश्चित मूल्य निर्धारित हो। किसान अपनी उपज का पूरा हिस्सा नहीं बेचते। लोग बताते है कि किसान अपनी फसल का 25 प्रतिशत हिस्सा अपने पास रखते है। रिजर्व बैंक की कमेटी ने यह चिंता जाहिर की है कि खाने कि चीज़ो के दाम बढ़ सकते है। तो आप यह समझें कि किसान आपको सस्ता अनाज भी उपलब्ध कराये, प्रदूषण पर भी ध्यान दे और ऑर्गेनिक खेती भी करे। मध्यम वर्ग को यह समझना होगा कि अगर सब कुछ सही चलता रहा तो उनको भी लंबे समय के लिए फायदा होगा। ग्रामीण इलाकों में ग्रामीण वस्तु कि  मांग थोड़ी सुधरी है लेकिन इसकि गति बहुत धीमी है। लोगो को यह समझना पड़ेगा कि अगर किसान कि आय या मजदूरों का भेतन बढ़ेगा तो अपने आप ही सभी वर्गों का फायदा होगा। 

 

डॉ.पं.श्री: फ्रांस कि सड़को पर किसानो के टैक्टर नज़र आ रहे है। यूरोपीय यूनियन या फ्रांस इस समस्या को किस तरह से हल कर रहा है, वह के किसानों कि क्या समस्या है? 

प्र.के.रे: फ्रांस के अलावा यूरोप के 12 देशों में यह आंदोलन चल रहा है। उनको समर्थन देने के लिए उनके पड़ोसी देशों ने भी अपने अपने देशों कि सीमा बंद कर रखी है ताकि कोई भी उत्पादक एक देश से दूसरे देश में न जा सके। बेल्जियम के किसानों ने यूरोपीय यूनियन की संसद के सामने प्रदर्शन किया। पोलैंड, रोमानिया और हंगरी के किसानों  कि मांगो में थोड़ा अंतर है। लेकिन मुख्य मांग वही है जो भारत में है, एक फसलों की लागत का सही मूल्य। स्पेन में एक गारंटी यह है कि अगर कोई सुपर बाजार होलसेल प्राइज  पर अनाज को खरीदता है तो उसको उसी दाम पर अनाज देना पड़ता है। लेकिन किसानों का कहना है कि उस दाम पर अनाज नहीं दिया जा रहा है। यूरोपीय यूनियन में जो तानाशाह लोग है, वह कह रहे है कि आप उर्वरक कम करो, खेत के  कुछ हिस्से को खाली रखो, मवेशियों कि संख्या घटाएं ताकि पर्यावरण के लिये मदद मिल सके। कुछ साल पहले फ्रांस में जो प्रदर्शन हुआ जिसकी वजह डीज़ल  के दामों में बढ़ोतरी थी। एक चीज़ जो नई जुड़ गई है रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण कि पूर्वी यूरोप के देशों में  उत्पाद कि  सप्लाई में कमी आ रही है। यूक्रेन एक फ़ूड बास्केट देश है, यहाँ पैदावार अच्छी होती है। यूरोपियन यूनियन का कहना है हम यूक्रेन का अनाज कम दाम में खरीदने के लिए तैयार हैं। जब यूक्रेन का सस्ता अनाज आएगा तो उन कि कीमतों पर भी प्रभाव पड़ेगा। लोग यह भी बोल रहे हैं कि आप यूक्रेन के अनाज को किसी दूसरे देशों में क्यों नहीं भेजते। आप अफ्रीका और एशिया के देशों को अपना अनाज क्यों नहीं बेचते। भारत के ज्यादातर किसान एक हेक्टेयर से कम जोत वाले किसान है। यूरोपीय यूनियन में 91 लाख फार्म हाउस में से हर दस फार्म में से नौ फार्म पर परिवार खुद खेतों पर काम करता है। जिसका औसत क्षेत्रफल 11 हेक्टेयर से थोड़ा कम है और कॉर्पोरेट खेती करने वालो का औसत 102 हेक्टेयर से अधिक है। इस आंदोलन का सबसे बड़ा कारण यही है कि 10  में से परिवार के 9 लोग खेती करते है तो दाम बढ़ने पर पुरे परिवार पर फर्क पड़ेगा। जैसे जैसे देश कि अर्थव्यवस्था में सुधार हुआ है, शहरीकरण, औद्योगीकरण हुआ है। जीडीपी में खेती का योगदान घट रहा है, आज लगभग 14 से 16 प्रतिशत  कृषि जीडीपी में अपना योगदान दे रही है। धीरे धीरे किसान या किसान के परिवार के लोग खेती छोड़कर अन्य कार्य करने लगे हैे। 

 

डॉ.पं.श्री: अमेरिका और यूरोपीय यूनियन जैसे देश के  किसानों को सब्सिडी दी जाती है। भारत में भी किसानों को सब्सिडी दी जाती है। सब्सिडी का पूरा गणित क्या है? 

प्र.के.रे: सब्सिडी में दो तीन चीज़ो का ध्यान रखा जाता है। सब्सिडी का सबसे बड़ा हिस्सा किसान को नहीं जा रहा। वो कृषि से जुड़ी औद्योगिक कम्पनी  को जा रहा है। जैसे फर्टिलाइजर  बनाने वाली कंपनी, ट्रैक्टर बनाने वाली कंपनी, कृषि उपकरण बनाने वाली कम्पनी को जाता है। कॉरपोरेट कंपनी को सब्सिडी का सबसे बड़ा हिस्सा जाता है। कॉरपोरेट कंपनी से यह उम्मीद रखी जाती कि  कंपनियां ट्रैक्टर और फर्टिलाइजर का दाम सस्ते रखेंगी। जिससे हमारे औद्योगिक क्षेत्र और किसानों को भी मदद मिल सके। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुरू किया कि हर तीन महीने में दो हज़ार रूपए  मिलेंगे जो सिर्फ छोटे किसानो के लिए है। अगर किसान की लागत बढ़ जाये और किसान को सब्सिडी न मिले तो बाजार में आटा और धान को आप महंगी कीमत में खरीदने के लिए कितना तैयार हैं?  किसानों को जलवायु परिवर्तन को देखते हुए किसानों से बोला जाता है कि आप ऑर्गेनिक खेती करो, मोटे अनाज की खेती करो, उर्वरक का उपयोग कम करो। किसानों को अचानक बोल दिया जाता है कि आप कुछ खेत खाली छोड़ो जिससे किसानो कि आय कम हो जाती है। श्रीलंका में ऑर्गेनिक खेती के नाम पर उनकी  अर्थव्यवस्था ख़राब हो गई।    

                     

डॉ.पं.श्री: पर्यावरण और जलवायु पर खेती कितनी निर्भर करती है?

प्र.के.रे: अरविंद सुब्रमण्यम जब वित्त मंत्रालय के सलाहकार थे तो उनकी अध्यक्षता में  दलहन को लेकर एक कमेटी बनी थी। उन्होंने एक अच्छी बात कही कि किसानों को  दाल की खेती के लिए प्रोत्साहन करे। अगर  कृषि वैज्ञानिक, कृषि शोध संस्थान और किसान मिलकर काम करेंगे तो खेती में विविधता देखने को मिलेगी। सुब्रमण्यम कमेटी ने रिपोर्ट दी कि सरकार दाल खरीद  कर उसका भंडार करे ताकि उपभोक्ता को कोई दिक्कत न हो। तिलहन के बारे में बात करें तो जितना तेल हम खाते हैं, उसका  60 प्रतिशत तेल बाहर से आता है। ये शरीर के लिए भी नुकसानदेह होता है। इसके बावजूद सरसों का न्यूनतम मूल्य गिर जाता है। हम लोगों इस बात को अलग कर दें कि किसान प्रदर्शन कर रहे हैं या सड़क बंद कर रहे है। जब प्रधानमंत्री विपक्ष में थे वो भी एमएसपी की बात करते थे।   

 

डॉ.पं.श्री: 2011 में  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब उपभोक्ता मामले के वर्किंग ग्रुप के चेयरमैन थे, उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह को एक रिपोर्ट पेश की थी कि किसानों को एमएसपी की गारंटी देनी चाहिए। जब प्रधानमंत्री मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो एमएसपी कि मांग करते रहते थे। एमएसपी होगी तो किसानों को उनकी फसल की लागत सही मिलेगी, जिससे किसानों के आत्महत्या के मामले कम होंगे। अगर सरकार को लगता है कि दलहन और  तिलहन की  खेती करनी चाहिए, इन फसलों पर  एमएसपी बढ़ा देनी चाहिए। जिससे किसान अपने आप ही दलहन और तिलहन कि  खेती करने लगेंगे।  

प्र.के.रे: कोई चीज़ नहीं बिक रही है,  जैसे प्याज़, दूध सड़को पर बह रहा था तो आपको या हमको मूल्य में कोई फर्क दिखा? उपभोक्ता और सरकार को लंबे समय के लिये सोचना चाहिए। जलवायु परिवर्तन के कारण गेहूं की खेती का नुकसान हो रहा है। सूखा, अतिवृष्टि, आग लगने कि घटना भी यूरोप और भारत में बढ़ रही है। मुझे लगता है कि आप लम्बे समय के बारे सोचे। लेकिन आप एक चुनाव से दूसरे चुनाव  तक ही सोचते है। 

 

डॉ.पं.श्री: यूरोप के किसानों की आय भारत के किसानों से बेहतर है। फिर भी यूरोप के किसान प्रदर्शन कर रहे है। बाजार अर्थव्यवस्था का जो दर्शन हैं, जिसे आज कल  हम क्रोनी कैपिटलिज्म कहते है। क्या इसका कोई दबाव है  जिसकी वजह से यूरोप के किसान प्रदर्शन कर रहे है?

प्र.के.रे: खेती और कोऑपरेटिव सेक्टर का जो मसला है वह दबाव का नहीं, सोची समझी साजिश का मामला है। अमेरिका के वाशिंगटन डीसी में पानी पर सार्वजनिक अधिकार है। लेकिन पानी उपयोग करने का विशेषाधिकार है। अगर खेत के बीच पानी बह रहा है,या कोई झील मौजूद है तो उस किसान का मालिकाना हक़ होता है। अमेरिका में जो परिवार खेती कर रही उन लोगो कि  उम्र बढ़ रही है। लेकिन परिवार के बच्चे कॉर्पोरेट सेक्टर की ओर बढ़ रहे है। दुनिया के अमीर व्यक्तियों में से एक  बिल गेट्स अमेरिका के सबसे बड़े जमींदार भी है। बिल गेट्स अपनी सम्पति मेडिकल कंपनी को देते रहते है। उनकी  कमाई का एक हिस्सा जंक फ़ूड  कंपनी को भी जाता है। इसका मतलब एक तरफ आप जंक फ़ूड खाओ दूसरी तरफ उनकी  कंपनी कि बनी दवा खाओ। भारत और दुनिया में पानी का संकट बढ़ता ही जा रहा है। अभी पार्लियामेंट्री कमेटी कि एक रिपोर्ट आयी है कि भारत के 200 से ज्यादा जिलों में पानी की समस्या है। पीने का पानी, खेती करने के लिए जो पानी है उस पर भी कॉर्पोरेट सेक्टर कब्ज़ा करना चाहता है। भगवान ने पानी बनाना बहुत पहले  ही बंद कर दिया। लेकिन पानी का कारोबार बढ़ता जा रहा, इसका मतलब पानी के कारोबार में बहुत मुनाफा हो रहा है।

इस दुनिया में एक अरब से ज्यादा लोगो को कम से कम पानी लेने कि लिए परेशानी उठानी पड़ती है। किसी भी धर्म में पानी पिलाना एक पुण्य के सामान है। पूरी दुनिया में आप पानी का कारोबार रहे हो तो किसानों के संकट को समझने में  परेशानी नहीं होती। खेती आपकी संस्कृति, समाज और सभ्यता का एक हिस्सा है। यूरोपीय यूनियन में 40 प्रतिशत हिस्से में खेती होती है।  अगर आप लोगो को सामाजिक वंचना कि ओर भेजेंगे तो यह समाज की स्थिरता के लिए सही नहीं है। 

 

डॉ.पं.श्री: क्या यूरोप में खेती को लेकर कोई राजनीतिक असर है? 

प्र.के.रे: पिछले चुनाव में जो विपक्षी प्रत्याशी के वोट पड़े, उनमे इस बार सुधार हो रहा है। अभी जर्मनी  चांसलर की लोकप्रियता अबसे निचले स्तर पर है। समस्या यह है कि कौन सी पार्टी सत्ता में है और कौन सी पार्टी किसानों के मुद्दे को उठाती है। ग्रीस के अर्थशास्त्री और पूर्व वित्त मंत्री यानिस वारोफाकिस ने अपने एक इंटरव्यू में कहा है कि पश्चिमी लोकतंत्र माफिया है। ब्रिटिश संसद के अंदर लेबर पार्टी में  विद्रोह हुआ तो  लेबर पार्टी ने स्पीकर के साथ मिलकर नियम के खिलाफ जा कर  दूसरा प्रस्ताव पास करा लिया। दूसरी विपक्षी पार्टी स्कॉटिश नेशनल पार्टी (SNP) का प्रस्ताव नहीं माना।  प्रस्ताव ये था कि स्कॉटिश नेशनल पार्टी ने कहा था गाजा पर तुरंत और लगातार सीज़फायर होना चाहिए। ब्रिटिश संसद में कोरोना से पहले 1948 के बाद कृषि से जुड़ा कोई कानून पास किया गया।

 

डॉ.पं.श्री: जब हरित क्रांति आयी तब किसानों से बोला गया कि आप चावल और गेहूं की खेती करो। सरकार द्वारा कहा गया कि हम आपको एमएसपी देंगे, मतलब एमएसपी की बात सरकार ने ही कही थी। एमएसपी की अवधारणा इंदिरा गांधी के समय आया थी, ताकि कृषि क्रांति और हरित क्रांति हो। किसानों ने बहुत मेहनत की जिससे किसान आत्मनिर्भर बन सके। लेकिन किसान आज एमएसपी की कानूनी गारंटी मांग रहे हैं। इसमें दिक्कत क्या आ रही है?

प्र.के.रे: उस समय इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया तो किसानों को ट्रैक्टर और अन्य कृषि उपकरण के लिए सस्ते लोन मिलने लगे। इस वजह से किसान आत्मनिर्भर बनने के लिए मेहनत करने लगा।   

 

डॉ.पं.श्री: हमारी जोत छोटी हो रही है, दुनिया में यह है कि बड़े फार्म होने चहिये। कोऑपरेटिव तरीके से सहकारी खेती का जो विचार है 60 के दशक में आ गया था। जवाहरलाल नेहरू के इस प्रस्ताव का चौधरी चरण सिंह ने विरोध भी किया था। तो क्या आपको सहकारी खेती का कोई भविष्य दिखता है।

प्र.के.रे: जैसे अपने एक इलाके का जिक्र किया कि लोगों ने धान बोना शुरू कर दिया। इसका मतलब किसान चाह छोटी जोत का हो या बड़ी जोत का, वो धान ऊगा रहा है। पंजाब में भी यही हो रहा है। पंचायत, ब्लॉक स्तर के अधिकारी और किसान मिलकर सब सहकारी खेती करें। इस देश कोई चीज़ नमुमकिन नहीं है लेकिन सरकार के पास देने को क्या है। सरकार गारंटी ले कि हम किसान की फसल खरीद लेंगे और उनका  जमीन पर मालिकाना हक रहेगा। 2011 में जो जनगणना हुई थी जिसमें  बिहार में 70 प्रतिशत लोगों के पास  अपना घर बनाने के लिए जगह नहीं थी। अगर इतनी बड़ी आबादी के पास अपनी खुद की जमीन  नहीं है तो कोई कैसे अपनी खेती खली छोड़ दे। शहर में  90 फीसदी लोगों के पास अपना खुद का घर नहीं होता। इससे दीवानी के मुकदमे भी बढ़ रहे हैं। हर गांव में परिवार की आपसी लड़ाई के मुक़दमे भी बढ़ रहे है। 

 

डॉ.पं.श्री: स्वामीनाथन कमेटी की जो सिफारिश रही है कि कम्प्रेसिव लागत यानी आपकी जमीन का नगद खर्चा, आपकी मेहनत और आपकी जमीन का किराया, इन सबको लागत में  जोड़ कर जो खर्चा है, उस पर पचास प्रतिशत अधिक दे कर एमएसपी पर बात करेंगे। अचानक यह एक केंद्रीय मुद्दा बन गया है। क्या आपको लगता है कि सरकार इस मांग को पूरा करेगी या किसान इस मांग से पीछे हट पायेंगे? 

प्र.के.रे: यह आंदोलन सिर्फ पंजाब और हरियाणा के कुछ किसानों का हो लेकिन यह पूरे देश के किसानों की मांग है। पिछले किसान आंदोलन का मुख्य कारण था कि कृषि कानून वापस लिये जाएं लेकिन इसमें भी एमएसपी जुड़ा जिसे लेकर सरकार को कमेटी बनानी पड़ी। देर सबेर यह एक बड़ा मुद्दा बनेगा। सरकार इस मांग पूरा कर सकती है, लेकिन मुझे लगता है, सरकार अपना तीसरा चुनाव जीतने को लेकर इतने आत्मविश्वास में है, या सोशल मीडिया से यह पता चलता है  कि इन जगह पर ज्यादा नुकसान नहीं हो रहा। अगर आपको सच में किसानों को उनकी जमीनों से हटाना है और उसे कॉर्पोरेट के हवाले करना हैमतो आप कोई ऐसी चीज़ क्यों करेंगे जिससे खेती को बढ़ावा मिले। 

 

डॉ.पं.श्री: खेती से लोगों को बाहर करना है ताकि किसान शहर में आ कर हमारे और आपके मकानों की चौकीदारी करे। प्रेमचंद का एक उपन्यास है ‘मंगलसूत्र’, जिसको वो पूरा नहीं कर पाए। जो उनका गोदान उपन्यास है उसका नायक है होरी। जो किसान अंत में गोदान के लिए परेशान है। होरी का बेटा होता है गोबर जो शहर में आकर मजदूरी करने के लिए मजबूर होता है, मंगल गोबर का बेटा है। कुल मिलाकर हमारे देश में किसानों को अपनी जमीन से ऊखाड़ कर मजदूर बनाने की दिशा में ले जाने की कोशिश हो रही है। दूसरी तरफ किसान अपनी जमीन पाना चाहते, उसकी उपज को बढ़ाना चाहते है। इसलिए किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य कि मांग कर रहे हैं  जिससे उन्हें एक ऐसी कीमत मिले कि उनकी लागत निकल जाए और मुनाफा भी हो जाये। खेती इस देश कि आत्मा रही है  जो इस देश को अब तक चला रही है। अनाज के मामले में इस देश का आत्मनिर्भर बनना इस  देश का एक बड़ा चमत्कार है जिसके पीछे सिर्फ किसानों की मेहनत है। हम यह उम्मीद करते कि इसका कोई हल निकले और सरकार को समझ आये। ये चुनावों और चुनाव के नतीजे से जुड़ा कोई मसला नहीं है लेकिन हो सकता है इसका असर पड़े। कोई भी सरकार बने किसानों की जिंदगी बेहतर करना एक चुनौती बनी रहेगी।

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