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कोविद पैनल ने पेश किया 2019 से ‘वन नेशन-वन इलेक्शन’ का ख़ाका, राष्ट्रपति को सौंपी रिपोर्ट

एक देश एक चुनाव को लेकर बनाई गई उच्च स्तर समिति ने अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंप दी है। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में गठित इस पैनल  रिपोर्ट कुल 18,626 पन्नों की है। रिपोर्ट में 2029 में एक साथ चुनाव कराने की सिफारिश की गई है। ये समिति पिछले साल सितम्बर में बनाई गयी थी। 191 दिनों तक लगातार काम करने के बाद पेश की गयी इस रिपोर्ट  में कहा गया है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव के बाद 100 दिनों के भीतर निकाय चुनाव भी करा लिये जाएं। कमेटी ने एकल मतदाता सूची और एकल मतदाता पहचान पत्र को वैध करने के लिए अनुच्छेद 325 में संशोधन की सिफारिश की है, जिसे राज्य चुनाव आयोग के परामर्श से भारत के चुनाव आयोग द्वारा तैयार किया जाएगा। फिलहाल लोकसभा और विधानसभा के चुनाव के लिए मतदाता सूची अलग-अलग बनती है।

 

क्या कहती है रिपोर्ट 

रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रारंभ में हर दस साल में दो चुनाव होते थे। अब हर साल कई चुनाव होने लगे हैं। इससे सरकार, व्यवसायों, श्रमिकों, न्यायालयों, राजनीतिक दलों, चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों और बड़े पैमाने पर नागरिक समाज पर भारी बोझ पड़ता है। समिति सिफारिश करती है कि सरकार को एक साथ चुनावों के चक्र को बहाल करने के लिए कानूनी तंत्र विकसित करना चाहिए। पहले चरण में लोक सभा और राज्य विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव कराए जायें। दूसरे चरण में नगर पालिकाओं और पंचायतों के चुनाव लोकसभा और राज्य विधान सभाओं के साथ ही होंगे। इस तरह से लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव होने के 100 दिन के भीतर नगर पालिकाओं और पंचायतों के चुनाव कराए जा सकते हैं। मध्यावधि चुनाव लोकसभा के शेष कार्यकाल की अवधि के लिए ही होगा।

लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनावों को एक साथ कराने के उद्देश्य से समिति ने सिफारिश की है कि भारत के राष्ट्रपति आम सभा के बाद लोकसभा की पहली बैठक की तारीख को अधिसूचना द्वारा जारी कर सकते हैं। चुनाव आयोग इस अनुच्छेद के प्रावधान को लागू करे और अधिसूचना की उस तारीख को नियुक्त तिथि कहा जाएगा।रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि विधि आयोग के प्रस्ताव पर सभी दल सहमत हुए तो यह 2029 से ही लागू होगा। साथ ही इसके लिए दिसंबर 2026 तक 25 राज्यों में विधानसभा चुनाव कराने होंगे। मध्यप्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, छत्तीसगढ़ और मिजोरम विधानसभाओं का कार्यकाल 6 महीने बढ़ाकर जून 2029 तक किया जाये। उसके बाद सभी राज्यों में एक साथ विधानसभा-लोकसभा चुनाव हो सकेंगे।

पहले भी असफल हो चुका है ‘एक देश एक चुनाव’ चक्र 

1951 से लेकर 1967 तक देश में चुनाव एक देश एक चुनाव की तर्ज़ पर ही हुए फिर ये चक्र टूटा कैसे? ये चक्र पहली बार तब गड़बड़ हुआ जब 1959 में केंद्र की तत्कालीन जवाहर लाल नेहरू सरकार ने पहली बार अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल किया और केरल की कम्यूनिस्ट सरकार को बर्खास्त कर दिया। 1957 में कम्यूनिस्टों ने केरल में जीत दर्ज की थी लेकिन जुलाई 1959 में उनकी सरकार बर्खास्त होने के बाद फरवरी 1960 में केरल में फिर विधानसभा चुनाव हुए। देश में किसी भी राज्य में बीच में ही चुनाव करने का ये मामला पहला था। इसके बाद ही एक साथ चुनाव का ये चक्र बिखरने लगा और 1970 आते-आते लगभग पूरी तरह टूट गया। 1970 में तो लोकसभा भी समय से पहले भंग हो गई और 1971 में फिर से चुनाव कराने पड़ गए। इस तरह 1971 के बाद लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग ही होने लगे।1967 के चुनाव में कांग्रेस को यूपी, बिहार, राजस्थान, पंजाब, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और मद्रास जैसे राज्यों में झटका लगा। कई जगहों पर कांग्रेस के बागियों ने अन्य पार्टियों के साथ मिलकर सरकार बनाई। ऐसी कई गठबंधन सरकारें 5 साल का कार्यकाल पूरा करने के पहले ही गिर गईं। जिस वजह से ‘एक देश एक चुनाव’ का क्रम बिगड़ गया। 

 

लोकतंत्र का क्या होगा? 

दावा किया जा रहा है कि अगर एक साथ चुनाव होता है तो सरकारी खर्च में भारी कमी आएगी। तो सबसे पहले यही जान लेते हैंं कि चुनाव पर कितना खर्च होता है? सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की एक रिपोर्ट के अनुसार 2019 के लोकसभा चुनाव में कुल 60,000 करोड़ रुपए खर्च किए गये। जिसमें चुनाव आयोग का खर्च 10,000 करोड़ रुपये था जबकि बाकी खर्च राजनीतिक पार्टियों ने  किया। इस चुनाव में सबसे ज्यादा खर्च करने वाली पार्टी भारतीय जनता पार्टी थी।नीति आयोग की रिपोर्ट में साफ़ लिखा है अगर देश में एक साथ चुनाव कराये जाते हैं तो लगभग दोगुनी इवीएम और वीवी पैट मशीनें खरीदने पड़ेंगी। जिनका खर्च लगभग 9284 करोड़ आएगा। इसके अलावा इन मशीनों के रख-रखाव पर जो खर्च होगा, वो अलग। इन मशीनों की एक ख़ास बात है इन्हें सिर्फ पंद्रह साल ही इस्तेमाल किया जा सकता है, उसके बाद इनको तोड़ देना होता है। इसका भी अलग से खर्च होगा और ये खर्च हर पंद्रह साल में होता रहेगा। यानी खर्च तो फिर भी होगा। सवाल ये भी है कि हर कदम पर विज्ञापन और फिजूलखर्ची करने वालों को सिर्फ चुनाव में खर्च ही बोझ क्यों लग रहा है?

मतदाता होंगे गुमराह, मौजूदा सरकार को सीधा फ़ायदा 

2015 में आईडीएफसी ने एक अध्ययन किया था जिसका निष्कर्ष था कि अगर चुनाव एकसाथ होते हैं तो 77 फ़ीसदी संभावना है कि मतदाता विधानसभा में और लोकसभा में एक ही पार्टी को मत देगा। वहीं चुनाव अगर छह महीने के अंतर पर होते हैं, तो 61 फ़ीसदी मतदाता एक ही पार्टी को चुनेंगे। ज़ाहिर है इससे विपक्ष को नुक़सान होगा। कई विश्लेषक ये भी मानते हैं कि अगर दोनों चुनाव एक साथ होते हैं तो राष्ट्रीय मुद्दों के सामने स्थानीय मुद्दे नजरंदाज हो जायेंगे। ऐसा होता है तो स्थानीय दलों को सीधा नुकसान होगा। ऐसे में मतदाताओं के एक तरफा वोटिंग की आशंका रहेगी।अगर किसी को फ़ायदा होगा तो वो है केंद्र सरकार। सरकार के भी कई तर्क हैं कि देश हमेशा चुनावी मोड में रहता है। विकास कार्य प्रभावित होते हैं क्योंकि किसी न किसी प्रांत में मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट लगा होता है। सरकारी कर्मचारियों की चुनाव में ड्यूटी लगती है, जिससे उनके नियमित विभागीय कार्य प्रभावित होते हैं। लेकिन यह लोकतंत्र पर भारी पड़ सकता है।  सच्चाई ये है कि इससे राजनीतिक पार्टियों में जवाबदेही में कमी आएगी और स्थानीय दल हाशिये पर चले जाएँगे। ये लोकतंत्र को विस्तारित करने की बजाय उसका केंद्रीकरण कर देगा।

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