प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दावा है कि उन्होंने 10 सालों में भारत की कायापलट कर दी है। भारत दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और तीसरी अर्थव्यवस्था बनने की ओर बढ़ रहा है। लेकिन दूसरी ओर यह सवाल उठता है कि फिर भी भारत प्रति व्यक्ति आय के मामले में दुनिया में 141वें नंबर पर क्यों है? आईएमएफ क्यों कह रहा है कि भारत इसी तरह कर्ज़ा लेता रहा तो 2008 तक जीडीपी के 100 फीसद के बराबर कर्जा हो जाएगा जो अभी भी 81 फीसदी हो गया है। क्या यह एक चिंताजनक स्थिति है। इन सवालों पर हमारे सलाहकार संपादक डॉ.पंकज श्रीवास्तव ने बात की वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश के रे से। पेश है इस वीडियो इंटरव्यू का अविकल पाठ-
डॉ.पंकज श्रीवास्तव: आईएमएफ ने जो कहा है उस को हमें कितनी गंभीरता से लेना चाहिए? क्या यह भारतीय अर्थव्यवस्था के किसी गहरे संकट में फंसने का संकेत है ? दुनिया की विकसित अर्थव्यवस्थाएँ भी कर्ज़ लेती हैं, अमेरिका में 100 फीसदी से भी ज़्यदा कर्जा है। तो क्या है आईएमएफ का पूरा मामला, जरा विस्तार से समझाइए।
प्रकाश के रे: अमेरिका में कर्जे का औसत 100 फीसदी से ज्यादा है लेकिन जापान और चीन यह औसत 300 फीसदी के आस पास है। कर्ज लेना कोई नई बात नहीं, देश की अर्थव्यवस्था के लिए कर्ज लेते ही रहते है। लेकिन सवाल यह है कि उस कर्ज को हम कहा निवेश करते हैंं। आईएमएफ ने कहा है कि आप कर्ज को 100 फीसदी मत होने दीजिए, इसकी संभावना कम दिख रही है।
कर्ज तीन तरह के होते हैं। एक जो सरकार द्वारा लिया जाता है, दूसरा बिजनेस कंपनी लेती है और तीसरा परिवार लेता अपने निजी उपयोग के लिए। भारत के लिए एक अच्छी बात है यह है कि हमारा जो विदेशी कर्ज है वो 629 अरब डॉलर है। हमारा जो कर्ज है वो रुपए में है न कि डॉलर में। सरकार जो चाहे बोले, भारत की अर्थव्यवस्था पास इतना बड़ा बाजार है। आपके बास्केट में बहुत सारा सामना है, जैसे हम अनाज के बड़े उत्पादक हैं, मेन्युफैचरिंग में अभी थोड़ा सा ग्रोथ हुआ है और इंजीनियरिंग भी है। तो आपके पास ऐसी स्थिति नहीं आएगी जिसे हम कहते है कर्ज संकट। जो हम पाकिस्तान और श्रीलंका में देख रहे है। दुनिया के 60 देश जो कम आमदनी के देश है उनकी स्थिति भी पाकिस्तान और श्रीलंका की तरह हो रही है। लगभग 10 लाख करोड़ रुपए आपको इस कर्ज कि सर्विस के लिए देने पड़ते है। तो हम अपनी आय का इतना बड़ा हिस्सा ब्याज पर दे रहे है। हम ये पैसा शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास के लिए लगा सकते थे। सरकार को इस कर्ज से बचना चाहिए। सरकार कर्ज क्यों लेती है , एक आपके पास आय है लेकिन आपके खर्चे ज्यादा है, तो आपको कर्ज लेने पड़ता है। लेकिन अगर हम कर्ज को सही तरीके उपयोग नहीं करेंगे तो उसका बकाया नहीं आएगा। एक उदाहरण है प्रगति मैदान टनल का जिसका उद्घाटन सरकार बहुत उत्साह से करती है। अब कहा जाता है इसकी मरम्मत भी नहीं कर सकते। इस को पूरा ही ठीक करना पड़ेगा। अगर इसका उद्घाटन थोड़ा रुक कर करते तो इसको बनने में क्या खामी है इन सारी चीज़ो पर ठीक से विचार हो जाता। तो आज जो मरम्मत और तोड़फोड़ पर पैसा खर्चा हो रहा उसको दूसरे कार्य पर लगा सकते थे। शायद 431 से ज्यादा ऐसी इंफ्राटेक्चर परियोजनाएँ हैं जो देरी से चल रही हैं। अगर कोई परियोजना समय पर पूरी नहीं होगी तो उसकी लगत बढ़ेगी तो जो हमें फयदा मिलने वाला है वो नहीं मिलेगा।
डॉ.पं.श्री: यानी आप कहना चाहते हैं कि बहुत सा कर्ज जो सरकार के पास है वह अनुत्पादक है। 2014 तक हमारे ऊपर 55 लाख करोड़ कर्जा था। आज वो 205 लाख करोड़ हो गया है। इसका मतलब हर व्यक्ति पर 1 लाख 40 हज़ार रूपए का कर्ज है। 2014 से पहले की भारत की सरकारों ने कुल मिलाकर 55 लाख करोड़ कर्ज लिया था, ऐसा क्या हुआ कि 10 सालो में इतना अधिक कर्ज बढ़ गया?
प्र.के.रे: इसमें दो तीन चीज़े हैं। एक तो कोरोना का काल आया जिसने हमारी अर्थव्यवस्था को बहुत नुकसान पहुंचाया, लेकिन यह तो एक आपदा थी। 2016 में जो नोटबंदी हुई, आज तक सरकारी स्तर पर नोटबंदी का क्या असर हुआ, कितना फायदा और नुकसान, उस पर कोई चर्चा नहीं होती। रघुराम राजन ने बहुत सटीक टिप्पड़ी की है कि नोटबंदी वैसी थी जैसे किसी तेज रफ्तार गाड़ी के पहिये पर गोली मार देना। उसके बाद जीएसटी लगाया गया। अभी तो मामला सही चल रहा है लेकिन शुरू में जो परेशानी हुई, उसकी चर्चा नहीं होती। क्या आय इस तरह से आ रही है कि हमरी अर्थव्यवस्था बढ़ रही है। परिवारों का जो पैसा बैंक में जमा होता है वो 50 साल के सबसे निचले स्तर पर है। इस का मतलब है कि लोगों के पास जमा करने के लिए कम पैसे बच रहे है। लोगों में इसको लेकर चिंता बढ़ रही है, लोगो को स्वास्थ्य, खाने-पीने की चीज़ो पर और जीवन कि बुनियादी जरूरतों पर ज़्यदा खर्चा करना पड़ रहा है। 2020-21 में जीडीपी में हाउस होल्ड परिवारों की बचत का जो हिस्सा था वह साढ़े ग्यारह प्रतिशत था। 2021-22 में आधा घटकर साढ़े पांच प्रतिशत हो गया। इससे आपको पता चलता है कि परिवारों के पास बचत काम हो रही है। तो हो सकता है कि सरकार भी बचत उतनी नहीं कर पा रही होगी जितना उसको करना चाहिए था। इन्होने इंफ़्राट्रेक्चर पर खर्चा यह सोचकर किया था कि अगर सरकार पैसा डालेगी तो उससे उत्साहित होकर निजी सेक्टर भी पैसा डलेगा। जिससे हमारी अर्थव्यवस्था आगे बढ़ेगी। सरकार को हर चीज़ पर खर्चा करने की जरुरत नहीं पड़ेगी, निजी सेक्टर से भी पैसा आ जाएगा लेकिन यह हो नहीं रहा। इन सारी चीज़ो के कारण भारत पर कर्जे का बोझ बढ़ता जा रहा है।
डॉ.पं.श्री: अपने कहा प्रकाश कि कोरोना की वजह से दिक्कत आई, लेकिन अर्थव्यवस्था के खराब होने के संकेत तो पहले से ही है। ग्रोथ रेट क्यों घट रही है?
प्र.के.रे: आप सही मायने में ग्रोथ को देखने जायें तो हम देखेंगे कि 2016 के बाद से ही ग्रोथ का पैरामीटर नीचे की तरफ जा रहा है। उदाहरण के लिए हम कह रहे हैं कि 7 प्रतिशत ग्रोथ रेट है। कोरोना काल के ग्रोथ रेट को गिना ही नहीं जाता। उस समय हमारी अर्थव्यवस्था दो तिमाही माइनस में गई, तो इस की भरपाई का क्या हुआ। पी. चिदंबरम ने एक बात कही थी कि एक समय के बाद तो जीडीपी बढ़ेगी ही बढ़ेगी। कभी अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ेगी तो कभी तेजी से गिरेगी भी। आपकी कोशिश यह होनी चाहिए कि आप आंकड़ों की बाजीगरी न करें। 2022 में क्या था कि पता चला कि पांच आंकड़े ओर आ गये। सरकार को आंकड़ो को एकदम स्पष्ट रूप से सबके सामने रखिये। जहां पर आपकी उपलब्धि है उसे आप ताल ठोक के बताइये कि हमारी उपलब्धि यह है। जो कमी है उसको भी आप सब के सामने स्पष्ट रूप से सामने रखे।
डॉ.पं.श्री: तो कमी रह कहां गई,? भारतीय अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर प्रधानमंत्री या सरकार दिखाती है। आज कल एक नारा चला हुआ मोदी की गारंटी। आप अलग अलग इलाके में देखते हैं, चाहे रोजगार का प्रश्न हो या किसानों की एमएसपी, जिसको लेकर अब फिर से आंदोलन हो रहा है… जब आप रोजगार,किसानों की आय और प्रति व्यक्ति आय की स्थिति में विकसित देशों के बराबर जाने की बात करते हैं तो आप 141वें स्थान पर पहुंच जाते है। चीन आपका एक प्रतिद्वंदी रहा है लेकिन भारत और चीन की अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा अंतर है। तो समस्या कहां आ रही हैं। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर या एमएसएमई की जो कहानी है वह इतनी धुंधली क्यों है?
प्र.के.रे: इन सेक्टर को छोड़ दें तो कृषि में ग्रोथ नहीं हुआ है, जो एक चिंता की बात है। अगर हम अंतरिम बजट के आंकड़ो को देखे तो उपभोग इस तरह से नहीं बढ़ा है जितना कि बढ़ना चाहिए। तो उपभोग कैसे होगा। एक चीज़ है कि कंपनी और बैंको का फायदा बहुत सॉलिड लेवल पर है। अर्थव्यवस्था प्रबंधन सिस्टम इस देश में..जैसे वित्त मंत्रालय के पास एक सलाहकार है, प्रधानमंत्री के पास अपनी सलाहकार समितियां है, फिर बैंक अपने तरीके से अध्ययन करता और फिर रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया समीक्षा करके एक रिपोर्ट जारी करता है। पहले आपके पास कई तरीके जैसे एनएसएसओ था, और भी सर्वे जो सरकार करती थी। जैसे फैमिली हेल्थ के डाटा से आपको एक अंदाजा मिल जाता है कि कितने लोगों के पास स्वास्थ्य सुविधा पहुंच रही है। अभी क्या हो रहा है कि जो सर्वे हो रहे हैं, सिर्फ सरकार के नेरेटिव को ही दिखाते हैं। उदाहरण के लिए अभी एसबीआई के सलाहकार ने कहा कि अभी तक हम बेरोजगारी दर को गलत तरीके से नाप रहे थे। कामकाज की जो उम्र होती है वो होती 15 से 59 साल तक। तो वह यह कह रहे हैं कि यह गलत तरीका है। इसमें से बहुत सारे युवा शिक्षा ग्रहण करते हैं और बहुत स्वरोजगार करते हैं। तो इन लोगों को भी बेरोजगारी में गिन लिया जाता है।
जब यह सरकार आई थी तो आपको याद होगा उन्होंने जीडीपी ग्रोथ रेट निर्धारित करने के लिए बहुत सारे आधार बदले थे । यह सब लोग जानते हैं कि आपको मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को जीडीपी में ज्यादा ध्यान देना पड़ेगा। जो हमने जापान और चीन में देखा। हमरे पास मैन्युफैक्चरिंग का सिंगल डिजिट योगदान है जीडीपी के लिए। इसको बेहतर करने के लिए आपके पास कुशल मजदूर होने चाहिए। कौशल विकास योजना के बारे में मुझे पता चला कि बहुत सारे लोगों को सर्टिफिकेट मिल गया लेकिन उन युवाओ को सिर्फ छह हज़ार वाली ही नौकरी ही मिल रही है। अगर आप मोबाइल बिजनेस को देखें तो जो मोबाइल का असेंबलिंग कॉस्ट है वह 4 से 6 प्रतिशत है। सरकार आपको चार से छह प्रतिशत पीएलआई के स्कीम के तहत सपोर्ट दे रही है। तो इसका मतलब यह हुआ कि एक तो वो सामान हमने नहीं बनाया, वो कहीं और से आ रहा है। आपको इस योजना को सही ढंग से लागू करना चाहिये था, लेकिन ऐसा नहीं होता। सिर्फ आप हल्ला मचाते है। कृषि क्षेत्र में पहले गेहूं को निर्यात रोका गया फिर चावल रोका गया और प्याज को रोका गया। अभी सरकार की तरफ से 29 रुपए किलो चावल जैसी कोई स्कीम चल रही है। मान लीजिए कि 80 करोड़ लोगों के लिए खाने की जरुरत है, और वह खाना नहीं खरीद सकते तो सरकार सपोर्ट करे। उससे हमरे कृषि उत्पादन पर किसानों को एमएसपी मिल जाएगी और बाजार में कीमत को कंट्रोल करने में मदद मिलेगी। वे परिवार जिनको इस योजना का लाभ मिल रहा वह अपने दूसरे जीवन के पक्षों पर निश्चिंत होकर ध्यान देते हैं, इसका भी एक विश्लेषण करना चाहिए। प्रधानमंत्री और हमारी सरकार कह रही है कि सप्लाई चेन.. दुनिया की आपूर्ति श्रृंखला, जिसमें अभी चीन का लगभग एक चौथाई हिस्सा है। इस प्रतियोगिता में हमें भाग लेना चाहिए। हमारे पास एक बड़ा बाजार है, श्रम बल भी बहुत बड़ा है, तो पैसा आएगा ही। सवाल यह है कि किस तरह से पैसा आयेगा, किस तरह की टेक्नोलॉजी उद्योग के लिए तैयार है। जब देश में खाद्य सुरक्षा का मामला आये तो निर्यात बंद कर देना चाहिए। जब रूस से सस्ता तेल आ रहा था, जिससे सरकार और कंपनी को फायदा हो रहा है क्योंकि तेल महंगे दाम में यूरोप को बेचा जा रहा है, लेकिन भारत सरकार इस बात को मना करती है। दुनिया भर में रिपोर्ट आ रही थी कि भारत और चीन रूस से सस्ता तेल खरीद कर यूरोप को महंगे दाम में बेच रहे हैं। सरकार ने विंड फॉल टैक्स लगाया तो हो क्या रहा था विंड फॉर टैक्स लगता फिर हटा लिया जाता था। किसान और कारोबारी जो निर्यात से जुड़े हैं उनका नुकसान हुआ होगा। सरकार का दावा यह है कि नीतियों में एक स्थिरता और एक निरंतरता है, इसकी ठीक से समीक्षा की जानी चाहिए।
डॉ.पं.श्री: अभी सरकार ने दावा किया कि 25 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर हो गये तो फिर ये 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज कैसे दे रहे हैं? अगर 25 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर आ गये हैं तो उपभोग भी बढ़ना चाहिए। मगर उपभोग नहीं बढ़ रहा तो 25 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर आ गये, इस दावे का क्या आधार है?
प्र.के.रे: इस देश में अगर आप 200 रुपए रोज कमा रहे हैं तो आप गरीब नहीं हैं। आप 200 रूपए रोज़ कमा रहे तो महीने में छह हज़ार कमाते है। अज़ीम प्रेम विश्वविद्यालय का एक शोध है कि 86 प्रतिशत और 92 प्रतिशत महिलाएं जो श्रमिक हैं, उनकी मासिक आमदनी दस हज़ार से कम है। प्रधानमंत्री मोदी कि अर्थव्यवस्था सलाहकार कमेटी के अध्यक्ष विवेक देवराय का बयान है कि अगर आप पच्चीस हज़ार रूपए कमाते हैंं तो वेतन के मामले आप 10 प्रतिशत लोगों में हैं। अगर आप पचास हज़ार कमाते हैं तो आप एक प्रतिशत लोगों में शामिल हैं। 2019 का आंकड़ा है कि 91 प्रतिशत जो वयस्क हैं इनके पास दस हज़ार डॉलर नहीं है। जिनके पास एक लाख डॉलर है वह सिर्फ एक प्रतिशत लोगों में शामिल है। सबसे धनी 10 प्रतिशत लोगों के पास 77.4 प्रतिशत और टॉप एक प्रतिशत को पैस 51.5 प्रतिशत संपत्ति है। देश के जो नौ धनकुबेर है उनके पास 50 प्रतिशत निचली आबादी के पास जितना है, उतना सिर्फ इन नौ लोगों के पास है। सबसे गरीब दस प्रतिशत आबादी 2004 से लगातार कर्ज में है। मैं कह रहा हूं कि सरकार की सारी बातों को मनाने के लिए तैयार हूं, सरकार सिर्फ एक बात मान ले कि पिछले दस साल में आर्थिक विषमता, सामाजिक विषमता शैक्षणिक विषमता में बहुत बड़ा इजाफा हुआ है। इस बात को सरकार स्वीकार करे। कई तरीके के गरीबी सीमा मानक हैं, इन सारे मानकों को मिलकर तय किया जाता है। उसमें कुछ सुधार होता है। हमारे देश में पिछले बीस तीस सालो में जो उपलब्धि हासिल की है, उस पर हमें गर्व होना चाहिए। मातृ मृत्यु दर, शिशु दर, मिड डे मील जैसी उपलब्धिया में थोड़ा सुधार आया है, लेकिन चिंता अभी भी बनी हुई है। दिक्कत क्या है कि जब आप किनारे पर खड़े आदमी को गिन लिये कि वो उभर गया और फिर उसपर अचानक से कोई संकट आ जाये और वो गरीबी रेखा से नीचे है। उदाहरण के लिए गेहूं का निर्यात हमने क्यों बंद किया, क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग के वजह से जनवरी, फरवरी और मार्च के महीने में तापमान बढ़ गया तो फसल कमजोर हुई। फिर मानसून में गड़बड़ी हुई तो चावल भी कम उगेगा, तो आप इसको भी रोक दीजिये। भारत की सरकार, भारत के बिजनेस और हाउसहोल्ड पर और अमेरिका में भी फर्क पड़ा कि महंगाई बढ़ गई। महगांई बढ़ गई तो बैंको ने इन्फ्लेशन कंट्रोल करने के लिए ब्याज दर बढ़ा दिया। दर बढ़ने से जो महगांई बड़ी तो आपका कर्जा भी बढ़ गया,जो आप रहे कह रहे थे कि दस हज़ार में काम हो जाएगा। इन्फ्लेशन आपके उपभोग को कम करता है, तो आपकी मार्केट भी निचले स्तर पर जाता है। इन्फ्लेशन के बारे में कहा जाता कि यह एक गुप्त टैक्स है। यह कम आमदनी वाले लोगों से निकालकर बड़े लोगों को तक पहुंचाया जाता है। उदाहरण के लिए दस रुपये में मूंगफली खरीदते है। तो जब महंगाई बढ़ी मूंगफली कि कीमत दस रूपए ही थी लेकिन उसकी मात्रा पचास ग्राम से चालीस ग्राम हो गई। सरकार यह करती हुई दिखी जरूर है कि अनाज के मामले मुद्रास्फीति और महंगाई को कंट्रोल कर रही है। लेकिन इससे कितना फायदा और नुकसान हुआ उसका विश्लेषण करना चाहिए। बीसीओ रिपोर्ट के अनुसार लोगों की थाली कम हुई है जिससे कुपोषण के मामले बढ़ रहे हैं। निजी लोन और क्रेडिट लोन का इतना अनुपात बढ़ा है कि रिज़र्व बैंक को यह कहना पड़ रहा है कि इस पर ब्याज बढ़ा दो और इसका कर्जा चुकाने के लिए थोड़े कठोर नियम बना देना चाहिए। कुछ लोग ऐसे हो सकते हैं कि अपनी वित्तीय स्थिति का आकलन किये बगैर लोन लेते हों। अभी कोरोना काल के बाद आपने देखा कि लोग चिट्टी लिखकर आत्महत्या कर रहे थे। चिट्ठी में लिखा होता था कि हमरा कोरोना काल में व्यापार बंद हो गया जिस कारण हम लोन नहीं चुका पाये। फ़र्ज़ी कंपनियों से लोन लेने के मामले के कारण भी बहुत लोग फंसे। तो एक आकलन ये होना चाहिये कि अगर सब कुछ सही है तो लोग इतने महंगे ब्याज दर पर लोन क्यों ले रहे हैं। ऐसा पहली बार हुआ है कि बैंकों से निजी और क्रेडिट कार्ड का लोन पर इसका अनुपात सबसे ज्यादा बढ़ा है। हमें यह सोचना चाहिए कि जब तक हमारी कर्ज की स्थिति कंट्रोल में है तो और चीज़ो को कंट्रोल से बाहार नहीं जाने दे।
डॉ.पं.श्री: अभी जो स्थिति देखते हैं कि अखबारों में बहुत अच्छी अच्छी हेडलाइंस हैं.. भारत कमाल कर रहा है। क्या यह बस ढोल पीटने का कोई मसला है, किसी हकीकत पर पर्दा डालने के लिए है या फिर मानें कि भारत की कहानी बहुत तेजी आगे बढ़ने जा रही है?
प्र.के.रे: कैबिनेट मीटिंग में राम मंदिर को लेकर प्रस्ताव पारित किया गया। जिसमे लिखा कि 1947 में देश का शरीर स्वतंत्र हुआ था उसमें आत्मा की प्राण प्रतिष्ठा अब हुई है। खुद प्रधानमंत्री ने कहा कि 2014 से पहले भारत में पैदा होना पाप था। लेकिन सरकार को आंकड़ों को लेकर पारदर्शिता बरतने में क्या दिखता है। सरकार अपने आलोचक अर्थशास्त्रियों को सुने। सरकार ने योजना आयोग हटा कर नीति आयोग बनाया तो उससे कुछ नहीं हुआ। सरकार ने कहा हम राज्यों को उनका हिस्सा ठीक से देंगे। अगर आप हर चीज़ को इवेंट बन कर चलेंगे, आपको आलोचना सुननी नहीं है। यूपीए सरकार के समय सरकार की आलोचना के लेख अख़बार में लगातार छपते थे, जिससे सरकार पर दवाब भी पड़ता था। यूपीए सरकार के समय के प्रधानमंत्री प्रेस कॉन्फ्रेंस करते थे। परमाणु बम डील के समय मनमोहन सिंह प्रेस कॉन्फ्रेंस के समय कहा कि आज मैंने अख़बार में लेख पढ़ा। जिसके बारे में मनमोहन सिंह ने विस्तार से समझाया। लेकिन आज ऐसा नहीं होता। अभी क्या हो रहा है, जो सरकार के समर्थक हैं, उसने जो मीडिया पर देख लिया उस पर विश्वास कर लेते हैं और जो विरोधी हैं उन्हें कहते हैं कि यह तो विरोध कर रहे हैं।
डॉ.पं.श्री: सबसे खतरनाक बात यह है जिस तरह से असमानता बढ़ रही है।आंकड़े गंभीर हैं अगर इस देश के नौ फीसदी लोगों के पास 50 फीसदी आबादी के बराबर सम्पन्ति हो जाए तो चिंता का विषय है। असमानता के महा समुद्र में समृद्धि के टापू बना रहे हैं।
प्र.के.रे: मन लीजिए देश का ग्रोथ रेट है 7 प्रतिशत और बैंकों का लोन शुरू हो रहा है आठ नौ प्रतिशत। देश में आय प्राप्त कर वाले लोग है, संगठित क्षेत्रों में क्या उनकी इनकम आठ प्रतिशत बढ़ी है।
डॉ.पं.श्री: तो आपकी वास्तविक ग्रोथ नहीं है, आपकी जो तरक्की होनी चाहिए वो नहीं हो रही। अगर सरकार खुद मानती है कि 80 करोड़ लोगों को वह 5 किलो आनाज दे रही है और मुफ्त में दे रही है तो यह एक बहुत बड़ा संकट है। असमानता के महा समुद्र में समृद्ध के टापू को ज्यादा दिनों तक बच नहीं सकते वह डूब जाएंगे। इसलिए बेहतर है कि सरकार हकीकत को स्वीकारे और आलोचकों को भी सुने। सरकार ऐसी नीतियां बनाये जिससे इस देश के सबसे कमजोर आदमी को तरक्की का एहसास हो। गांधी जी का महामंत्र था कि नीति बनाते समय यह देखो कि अंतिम व्यक्ति पर इसका क्या असर पड़ेगा।
शुक्रिया प्रकाश हमसे बात करने के लिए।