“साल – 2001 में एक कत्थक डांसर उमा शर्मा को पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया। समारोह के बाद हुई चाय पार्टी में वो काफ़ी देर तक सोनिया गांधी से बात करती रहीं। इस बीच एक नेता उनको लगातार देखते रहे। जब उमा शर्मा उस नेता के पास गईं तो उन्होंने उन्हें उलाहना दिया, उमाजी ग़ैरों से बात करती हो और हमसे पद्म भूषण लेती हो।” – ज़ाहिर है कि वो नेता अटल बिहारी वाजपेयी थे।
अटल बिहारी बाजपेयी अपनी राजनीति में कभी उदारवादी दिखते हैं तो कभी उग्र राष्ट्रवादी। उनकी कविताओं का भी यही हाल है। हिंदू मुस्लिम एकता की बात भी करते हैं लेकिन 2002 के गुजरात दंगों के बाद भी नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं करते। एक तरफ़ वो देश के लिए अविवाहित रहने की बात करते है तो वहीं दूसरी और उनके एक शादीशुदा औरत से ताउम्र संबंध रहते हैं। परम्पराओं के नाम पर राजनीति करने वाले RSS में अटल कई बार परंपराओं को तोड़ते दिखते हैं।
अटल बिहारी वाजपेयी तीन बार भारत के प्रधानमंत्री रहे 1996 में पहली बार वो मात्र 13 दिनों के लिए प्रधानमंत्री रहे। दूसरी बार 1998 में प्रधानमंत्री बने मगर वो सरकार चली 13 महीने. और तीसरी बार वो 1999 से 2004 तक प्रधानमंत्री रहे. अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म 25 दिसंबर 1924 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर शहर में हुआ था और उनकी तरबियत RSS की पाठशाला और उससे भी पहले आर्य समाज जैसे संगठनों मे हुई थी. अटल में उग्र राष्ट्रवाद की बेझिझक नुमाइश की आदत थी. लेकिन इन्हीं अटल बिहारी वाजपेयी पर भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान मुखबिरी के आरोप लगते हैं। फ्रंटलाइन को दिए एक इंटव्यू में अटल बिहारी ने बताया है – ‘27 अगस्त, 1942 को बटेश्वर बाज़ार में प्रदर्शनकारी इकट्ठे हुए थे। दोपहर क़रीब दो बजे ककुआ उर्फ़ लीलाधर और महुआ वहां आए और भाषण दिया। उन्होंने लोगों को वन क़ानूनों का उल्लंघन करने को राज़ी किया। (उसके बाद) 200 लोग वन विभाग के यहां गए. मैं अपने भाई के साथ उस भीड़ में शामिल था। मैं और मेरा भाई पीछे खड़े रहे. बाक़ी लोग इमारत में घुस गए। मैं वहां ककुआ और महुआ के अलावा किसी को नहीं जानता… मुझे लगा कि (इमारत की) ईंटें गिरने वाली हैं. मुझे नहीं पता दीवार कौन गिरा रहा था, लेकिन उसकी ईंटें निश्चित ही गिर रही थीं… मैं और मेरा भाई मयपुरा जाने लगे। भीड़ हमारे पीछे थी। जिन लोगों (ककुआ और महुआ) का ज़िक्र पहले किया वे मवेशियों के बाड़े से होते हुए बाहर निकल आए थे। उसके बाद भीड़ बिचकोली की तरफ़ जाने लगी। वन विभाग में दस–बारह लोग थे। मैं 100 ग़ज़ की दूरी पर खड़ा था. सरकारी इमारत गिराने में मेरा कोई हाथ नहीं था. उसके बाद हम अपने–अपने घर वापस लौट गए। ’
अटल RSS से जुड़े थे और RSS भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल नहीं था।आज़ादी के बाद RSS का ये राष्ट्रवाद मुसलमान विरोध की लाइन पर चलता हुआ समय के साथ उग्र होता गया। RSS से जुड़े लोगों की उग्रता दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी। रॉबिन जेफ़्री जैसे विद्वानों और स्वतंत्र राजनैतिक विश्लेषकों ने ही नहीं, सियासत में वाजपेयी के समकालीन बहुत से ऐसे लोग थे जिनका मानना था कि 1960 के दशक के वाजपेयी तेज़–तर्रार हिंदुत्ववादी नेता हुआ करते थे। उस दौर में अटल कई बार मुसलमानों के ख़िलाफ़ तीखे बयान दिया करते थे। “रग–रग हिंदू मेरा परिचय” जैसी कविताएँ अटल बिहारी वाजपेयी के हिंदुत्ववादी व्यक्तित्व को चित्रित करती हैं।
अटल ने तत्कालीन संसद से सीखा था राजनैतिक व्यवहार
हालांकि, अटल, जैसे–जैसे दिल्ली और भारतीय संसद की राजनीति में मंझते गए, वैसे–वैसे उन्होंने अपनी उग्र राष्ट्रवादी छवि को ढकने और दबाने की कोशिश की। उनकी इस कोशिश को देखते हुए ये याद रखा जाना चाहिए कि जितना कोई सियासी शख़्सियत संसद पर असर डालती है, संसद उससे कहीं ज़्यादा असरदार रोल किसी राजनेता का किरदार गढ़ने में अदा करती है। वाजपेयी इसकी मिसाल हैं। शुरुआती दिनों में संसद के कद्दावर नेताओं के खुले मिज़ाज ने वाजपेयी पर भी गहरा असर डाला। फिर, देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की अपने कट्टर विरोधियों, जिनमें वाजपेयी भी थे, के प्रति सहिष्णु और दयालु भाव ने भी वाजपेयी पर गहरा असर डाला। अटल 1957 से लेकर 2004 तक सांसद रहे। इस दौरान वो 1962 और 1984 में दो बार चुनाव हारे भी, लेकिन, तब भी, राज्यसभा के रास्ते संसद पहुंच गए थे। इस दौरान अटल पर तत्कालीन संसद और इसके सदस्यों का पूरा असर था। मतलब वो अपने राजनैतिक विरोधियों की आलोचना की जगह उदारवादी दृष्टिकोण रखते थे। लेकिन जनसंघ के बड़े नेता बलराज मधोक को ये उदारवादी व्यवहार रास नहीं आता था। इस कारण अटल और मधोक के संबंध कभी मधुर नहीं रहे।
जब नेहरु को लेकर अपनी ही पार्टी के बलराज मधोक को चेताया
1961 में नई दिल्ली से लोकसभा का उपचुनाव जीतने के बाद बलराज मधोक सेंट्रल हॉल में बैठ कर ज़ोर–ज़ोर से नेहरू की चीन नीति की बखिया उधेड़ रहे थे। तभी अटल बिहारी वाजपेयी उनके पास आए और कहा कि अगर आप नेहरू को इस तरह भला बुरा कहेंगे तो कभी भी कोई चुनाव नहीं जीत पाएँगे। नेहरु की मौत के बाद अटल बिहारी वाजपेयी का भाषण ऐतिहासिक है और दिखाता है कि अलग विचारधाराओं से आने वाले नेता भी एक दूसरे के प्रति किस हद तक सम्मान करते थे। नेहरु की मौत पर अटल ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा था, “एक सपना था जो अधूरा रह गया, एक गीत था जो गूँगा हो गया, एक लौ थी जो अनन्त में विलीन हो गई। सपना था एक ऐसे संसार का जो भय और भूख से रहित होगा, गीत था एक ऐसे महाकाव्य का जिसमें गीता की गूँज और गुलाब की गंध थी। लौ थी एक ऐसे दीपक की जो रात भर जलता रहा, हर अँधेरे से लड़ता रहा और हमें रास्ता दिखाकर, एक प्रभात में निर्वाण को प्राप्त हो गया।”
RSS की परंपरावादी उग्रता को तोड़ने के कई मिसाल अटल की ज़िदगी में मिलते हैं। इसी तरह की एक मिसाल तब मिलती है, जब अटल अमेरिका दौरे पर थे। खाने में बीफ़ परोसा गया। साथ बैठीं कांग्रेस नेता मुकुल बनर्जी ने अटल को इस बारे में कहा। तो अटल बोले ये गायें इंडिया की नहीं, अमेरिका की हैं। खाने–पीने की आदतें और पीने–पिलाने की शौक़ भी अटल को RSS की पॉप्यूलर मान्यताओं से अलग करती है। द वायर के एक रिपोर्ट के अनुसार अपने शुरुआती दिनों में वाजपेयी वाइन और स्कॉच के शौकीन थे. उनके पसंदीदा खानों में रसगुल्ला, मुर्गा, खीर, खिचड़ी और तले हुए झींगे और मछली थे.
निजी ज़िंदगी में तोडे कई पूर्वाग्रह, अविवाहित थे पर कुँवारे नहीं
संबंधों में भी अटल सामाजिक और आरएसएस के राजनैतिक पूर्वाग्रहों को तोड़ते दिखते थे। अटल अविवाहित थे। लेकिन ताउम्र एक विवाहित महिला के साथ संबंध में रहे। इन महिला का नाम था – राजकुमार कौल। कॉलेज के दिनों में अटल और राजकुमारी साथ पढ़ते थे। अटल की जीवनी लिखने वाली सागरिका घोष के अनुसार दोनों एक दूसरे को पसंद करने लगे। लेकिन जब शादी की बात आई तो राजकुमारी के परिवार ने शिंदे की छावनी में रहने वाले और आरएसएस की शाखा में रोज़ जाने वाले वाजपेयी को अपनी बेटी के लायक नहीं समझा. दिल्ली के रामजस कॉलेज में दर्शन शास्त्र पढ़ाने वाले बीएन कौल से राजकुमारी की शादी हुई। जब वाजपयी सांसद के रूप में दिल्ली आ गए तो राजकुमारी से मिलने का उनका सिलसिला फिर से शुरू हुआ। जब बीएन कौल रामजस हॉस्टल के वॉर्डन बने तो राजकुमारी कौल भी उनके साथ रहने लगी। वाजपेयी उनसे मिलने अक्सर हॉस्टल ही आ जाया करते थे। छात्र बाहर खड़ी काली एम्बेसडर कार देखकर समझ जाते थे कि वाजपेयी आए हैं। अटल बिहारी वाजपेयी और राजकुमारी कौल के इस रिश्ते का कोई नाम नहीं था। वाजपेयी की जीवनी ‘हार नहीं मानूंगा‘ में विजय त्रिवेदी लिखते हैं, “दोहरे मानदंडों वाली राजनीति में ये अलिखित प्रेम कहानी तक़रीबन पचास साल चली और जो छिपाई नहीं गई. लेकिन उसे कोई नाम भी नहीं मिला.”
संबंधों के लिए तोड़ा प्रोटोकॉल
वाजपेयी को दिल्ली में बड़ा सरकारी घर मिला तो राजकुमारी कौल, उनके पति ब्रज नारायण कौल और उनकी बेटियां वाजपेयी के घर में शिफ़्ट कर गए। सागरिका बताती हैं जब वाजपेयी के सबसे नज़दीकी दोस्त अप्पा घटाटे वाजपेयी को अपने यहां खाने पर बुलाते थे तो वाजपेयी, राजकुमारी कौल और ब्रज नारायण कौल तीनों साथ–साथ उनके यहां जाते थे। बलबीर पुंज कहते हैं कि ब्रज नारायण कौल ने न सिर्फ़ राजकुमारी और वाजपेयी के बीच दोस्ती को स्वीकार कर लिया था बल्कि वो वाजपेयी को बहुत पसंद करने लगे थे। अस्सी के दशक में एक पत्रिका सैवी को दिए गए इंटरव्यू में राजकुमारी कौल ने कहा था, “वाजपेयी और मुझे, मेरे पति को इस रिश्ते के बारे में कभी सफ़ाई नहीं देनी पड़ी। वाजपेयी की जीवनी ‘हार नहीं मानूंगा‘ में विजय त्रिवेदी लिखते हैं – हिंदुस्तान की राजनीति में शायद पहले कभी नहीं हुआ होगा कि प्रधानमंत्री के सरकारी आवास में ऐसी शख़्सियत रह रही हो जिसे प्रोटोकॉल में कोई जगह न दी गई हो, लेकिन जिसकी उपस्थिति सबको मंज़ूर हो।
साठ के दशक में मिसेज़ कौल अपने पति को तलाक देकर वाजपेयी से शादी करना चाहती थीं, लेकिन अटल की पार्टी और आरएसएस का मानना था कि अगर वो ऐसा करते हैं तो इसका उनके राजनीतिक करियर पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। वाजपेयी ने ताउम्र शादी नहीं की लेकिन मिसेज़ कौल के साथ उनके लगभग 50 सालों तक संबंध रहे। एक कार्यक्रम के दौरान वाजपेयी ने स्वीकार किया था, “मैं कुंवारा हूं ब्रह्मचारी नहीं.
अटल के मुस्लिम-विरोध का सच
जी ज़िंदगी और राजनैतिक व्यवहार में अटल पूर्वाग्रहों को तोड़ते दिखते हैं लेकिन क्या मुसलमानों के ख़िलाफ़ उनका नज़रिया जनसंघ या आरएसएस से अलग था। आज भी कई लोग ये मानते हैं कि अटल एक समावेशी और सेक्युलर व्यक्ति थे। आरएसएस की तरह अटल घोर मुस्लिम विरोधी नहीं थे। कुछ लोग कहते हैं कि वो बहुत अच्छे आदमी थे, मगर ग़लत पार्टी में थे। पर, ऐसा नहीं है. रॉबिन जेफ़्री जैसे विद्वानों और स्वतंत्र राजनैतिक विश्लेषकों ने ही नहीं, सियासत में वाजपेयी के समकालीन बहुत से ऐसे लोग थे जिनका ये मानना था की 1960 के दशक के वाजपेयी तेज़–तर्रार हिंदुत्ववादी नेता हुआ करते थे, उस दौर में कई बार मुसलमानों के ख़िलाफ़ तीखे बयान दिया करते थे। वाजपेयी, ताउम्र संघ की कट्टर राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रति समर्पित रहे।
नेल्ली नरसंहार
फरवरी 1983 – असम में नेल्लीनरसंहार हुआ। 2,000 से ज्यादा लोग मारे गये। लगभग सभी बंगाली मुसलमान थे। असम में चुनाव होने वाले थे और भाजपा अध्यक्ष के रूप में वाजपेयी राज्य में प्रचार कर रहे थे।
अपने एक भाषण में, वाजपेयी को यह कहते हुए उद्धृत किया गया था, “विदेशी लोग यहां आए हैं और सरकार कुछ नहीं करती है। अगर वे इसके बजाय पंजाब में आए होते तो क्या होता? लोगों ने उन्हें टुकड़ों में काट दिया होता और फेंक दिया होता।” अटल के भाषण के तुरंत बाद नेल्ली में हिंसा भड़क उठी. असम में अपने भाषण के बाद वाजपेयी नई दिल्ली लौट आए थे। नई दिल्ली में अटल बिहारी वाजपेयी ने नेल्ली हत्याकांड की निंदा की.
बाबरी मस्जिद विध्वंस
अटल ने बहुत शातिराना तरीक़े से राम मंदिर के लिए हो रहे आंदोलन से ख़ुद को अलग किए रखा। 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद तोड़ा गया। 6 दिसंबर को अटल अयोध्या में नहीं थे। लेकिन 5 दिसंबर 1992 को लखनऊ के अमीनाबाद में RSS के कारसेवकों मिले थे। अटल ने उस स्थान का जिक्र करते हुए जहां विहिप और भाजपा ने राम मंदिर बनाने का प्रस्ताव रखा था, कहा, “वहाँ नुकीले पत्थर निकले हैं। वहां कोई नहीं बैठ सकता। जमीन को समतल करना होगा। इसे बैठने लायक बनाना होगा। यज्ञ की व्यवस्था होगी तो कुछ निर्माण भी होगा।”
अगले दिन बाबरी मस्जिद ढहा दी गई। अब नई दिल्ली वापस आए वाजपेयी ने बाबरी मस्जिद विध्वंस के दिन को “मेरे जीवन का सबसे दुखद दिन” करार दिया।
गुजरात दंगे
2002 में गुजरात में भयंकर सांप्रदायिक दंगे हुए। विश्व भर में इसे गुजरात नरसंहार भी कहा जाता है। वाजपेयी तब प्रधानमंत्री थे और मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री। दंगों के बाद गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को हटाने की मांग भाजपा के भीतर और बाहर, विभिन्न हलकों से उठाई गई थी। एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में, अटल बिहारी वाजपेयी ने मोदी को “राजधर्म का पालन” (राज्य का कर्तव्य) करने की सलाह दी। यह समाचार मीडिया में सुर्खी बन गई। लेकिन उसी प्रेस कॉन्फ्रेंस में, मोदी के हस्तक्षेप के बाद, वाजपेयी ने कहा कि मुख्यमंत्री “वही कर रहे थे“।
बाद में, 12 अप्रैल 2002 को भाजपा राष्ट्रीय परिषद की बैठक में, वाजपेयी ने कहा, “हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि गुजरात की त्रासदी कैसे शुरू हुई। इसके बाद के घटनाक्रम निस्संदेह निंदनीय थे, लेकिन आग किसने लगाई? आग कैसे फैली?”
साफ़ है अटल सांप्रदायिक आग लगाने का काम भी कर देते थे और शातिर राजनीति के सहारे अपनी छवि प्रबंधन में भी कामयाब हो जाते थे। उनके उपर अब्बास ताबिश का ये शेर फ़िट बैठता है –
“आपको कौन तमाशाई समझता है यहाँ,
आप तो आग लगाते हैं, चले जाते हैं।”