ओबीसी समाज में शामिल अलग-अलग जातियों को वर्गीकृत करने को लेकर साल 2017 में गठित की गई रोहिणी आयोग की रिपोर्ट को जल्द से जल्द सार्वजनिक किया जाना चाहिए। सामाजिक न्याया भागीदारी मंच की ओर से शुक्रवार को दिल्ली के जवाहर भवन में आयोजित एक संगोष्ठी में पूर्व राज्यसभा सांसद अली अनवर ने इसकी जोरदार माँग की। उन्होंने पूरे देश में जातिगत जनगणना कराए जाने की भी मांग उठाई। बीजेपी पर हमला बोलते हुए उन्होंने कहा कि यह पार्टी पसमांदा समुदाय को लेकर सिर्फ़ ढोंग करती है। ज़मीनी स्तर पर उसे इस समुदाय के विकास से कुछ भी लेना देना नहीं है।उन्होंने कहा कि बीजेपी ने इस देश में एक दलित राष्ट्रपति बनाया था। उनके कार्यकाल में दलितों, पिछड़ों पर तमाम अत्याचार हुए, लेकिन राष्ट्रपतिजी ने एक भी शब्द नहीं बोला। अली अनवर का इशारा पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द की ओर था।
संगोष्ठी में भाग लेने आये लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रविकांत ने कहा कि अकसर अतिपिछड़ी, अति दलित जातियों पर आरोप लगता है कि यह बीजेपी की समर्थक हैं, बीजेपी को वोट देती हैं लेकिन ऐसा नहीं है। उन्होंने कहा, “मैं दावे के साथ यह कह सकता हूँ कि ये जातियाँ हिंदुत्ववादी नहीं हैं, सांप्रदायिक तो कत्तई नहीं हैं।“ उन्होंने कहा कि हमें इस मसले पर गंभीरता से विचार करना पड़ेगा। राजनीतिक भागीदारी का सवाल इन जातियों के लिए अहम है।इस कार्यक्रम में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भी कई छात्रों ने भी अपनी बात रखी। ऐसे ही एक छात्र वीरेंद्र ने कहा कि अतिपिछड़ा, पसमांदा, दलित, यह समुदाय पिछले कुछ वर्षों से राजनीति के केंद्र मे आये हैं। सामाजिक न्याय दावेदारी मंच जैसे संगठनो को इसका श्रेय देना चाहिए। शोषित-वंचितों के खिलाफ लड़ाई लड़ने में इन संगठनों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने राजनीतिक दलों पर आरोप लगाते हुए कहा कि हर राजनीतिक दल दलितों, पिछड़ों की बात करता है लेकिन जब इन समुदायों के लोगों को टिकट देने की बात आती है, तब ये पार्टियां अपने वायदे भूल जाती हैं।
वहीं एक और छात्र अमित ने कहा कि आज़ादी के बाद से समय-समय पर दलितों-पिछड़ों को लेकर राज्यों और केंद्र सरकार द्वारा हुकुम सिंह कमेटी से लेकर राघवेंद्र कमीशन, छेदिलाल कमीशन जैसी कई कमेटियाँ बनाई गईं। लेकिन इनकी सिफारिशों को सरकार ने नहीं माना। कई कमेटियाँ तो ऐसी थीं, जिनकी रिपोर्ट ही सार्वजनिक नहीं की गईं।
जेएनयू के ही एक और छात्र अजीम ने कहा कि इन जातियों के लिए मसला राजनीतिक प्रतिनिधितत्व या आरक्षण का नहीं है। इस समाज के लोगों की प्राथमिकता मंत्री, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बनना नहीं है, बल्कि इनकी प्राथमिकता शिक्षा, स्वास्थय जैसी बुनियादी सुविधाओं को पाना है। वहीं एक अन्य वक्ता ने कहा कि इन जातियों के पिछड़ने का एक बड़ा कारण यह है कि मशीनीकरण के युग ने इन जातियों के पुश्तैनी काम को छीन लिया। सरकारें भी इसके लिए दोषी हैं। जातिगत जनगणना होने से हक़ीक़त सामने आ सकती है।
दरअसल, केंद्र सरकार ने दो अक्टूबर 2017 को ओबीसी समाज के आरक्षण को लेकर दिल्ली हाईकोर्ट की पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रोहिणी की अध्यक्षता में चार सदस्यीय आयोग का गठन किया था। इसे ओबीसी समाज को उप वर्गीकृत करना था। साथ ही आयोग को उस फॉर्मूले पर भी विचार करना था जिसके तहत ओबीसी जातियों को आरक्षण का बराबर लाभ मिल सके। आयोग को अपनी रिपोर्ट 31 जनवरी 2023 तक सौंपनी थी लेकिन इसका कार्यकाल 13 बार बढ़ाया गया। आखिरकार 31 अगस्त को आयोग ने अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंप दी।
उधर, विपक्ष रोहिणी कमीशन को मोदी सरकार का एक राजनीतिक दाँव ही मानता है। उसका कहना है कि जब तक जाति जनगणना नहीं होती तब तक जातियों के आँकड़े सामने नहीं आयेंगे। ऐसे में रोहिणी कमीशन ने किन आँकड़ों पर भरोसा करके रिपोर्ट बनायी है?