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समता का झंडा उठाकर धर्मग्रंथों को चुनौती देने वाले योद्धा थे पेरियार

ई.वी.रामासामी नायकर, यही नाम था दक्षिण भारत के उस महान सामाजिक क्रांतिकारी का जिसे दुनिया पेरियार कहती है। जिन्होंने दक्षिण भारत, ख़ासतौर पर तमिलनाडु का पूरा राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य बदल कर रख दिया। पेरियार का अर्थ है पवित्र आत्मा या सम्मानित व्यक्ति जिन्होने 1922 में तमाम धर्मग्रंथों को जलाकर हिंदू धर्म के सामने गंभीर चुनौती पेश की थी। आज तमिलनाडु के राजनीतिक में छायी नज़र आने वाली द्रविड़ पार्टियों के मूल में इन्हीं पेरियार की विचारधारा है।

इरोड
वेंकट रामासामी नायकर परियार का जन्म 17 सितंबर 1879 को तत्कालीन मद्रास प्रांत के एक धनगर मतलब गड़रिया परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम वेंकटप्पा नायकर और मां का नाम चिन्नाबाई था। वेंकटप्पा नायकर पेशे से व्यापारी थे। पेरियार रामासामी केवल चौथी कक्षा तक पढ़े और 10 साल की उम्र में पढ़ाई छोड़कर पिता के साथ व्यापार में हाथ बँटाने लगे। उनका परिवार बहुत धार्मिक और रूढ़िवादी था। लेकिन रामास्वामी नायकर किशोरावस्था से ही तार्किक और चिंतनशील थे। धार्मिक पिता से वादविवाद के कारण उन्होंने धर्म और ईश्वर की सत्ता को जाँचने के लिए घर छोड़ दिया। ज्ञान की आस में उन्होंने काशी में संन्यासी जीवन बिताया। लेकिन जल्दी ही उन्हें ईश्वर के मिथ और संन्यास के पाखंड का बोध हो गया। इसलिए काशी और संन्यास त्यागकर पेरियार घर वापस आ गये।

महात्मा गांधी के स्वराज के लिए आंदोलन और कार्यक्रमों से प्रभावित होकर पेरियार रामास्वामी नायकर 1919 में कांग्रेस से जुड़ गए। 1920 में उन्होंने महात्मा गाँधी द्वारा चलाए गए असहयोग आंदोलन में भाग लिया। सांगठनिक क्षमता और सक्रियता से प्रभावित होकर कांग्रेस नेतृत्व ने 1922 में रामास्वामी नायकर को मद्रास प्रांत का अध्यक्ष बना दिया। कांग्रेस के विभिन्न आंदोलनों में पेरियार ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते रहे। शराबबंदी, अदालतों के बहिष्कार में उन्होंने अपनी सक्रिय भागीदारी दिखायी। 

1924 में केरल में त्रावणकोर के राजा के वाइकोम मंदिर की ओर जाने वाले रस्ते पर दलितों के प्रवेश को प्रतिबंधित करने का विरोध हुआ। इसका विरोध करने वाले नेताओं को राजा के आदेश से गिरफ़्तार कर लिया गया और इस लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए कोई नेतृत्व नहीं था। तब, आंदोलन के नेताओं ने पेरियार को आमंत्रित किया। इस वाइकोम सत्याग्रह को लेकर गांधी जी और पेरियार के दृष्टिकोण शुरू से ही अलग थे। गांधी ने इस मुद्दे कोहिंदू समस्याके रूप में माना, वहीं पेरियार ने इसे सभी के लिए चिंता का विषय माना। पेरियार तत्कालीन अछूतों के लिए मंदिर में प्रवेश और स्थानीय महादेव मंदिर के आसपास की सड़कों पर चलने का अधिकार दोनों चाहते थे, जबकि गांधी सिर्फ सड़कों पर घूमने का अधिकार चाहते थे। पेरियार ने श्री नारायण गुरु के दृष्टिकोण को साझा किया कि प्रदर्शनकारियों को पुलिस द्वारा गिरफ्तारी का विरोध करना चाहिए और जबरन मंदिर परिसर में प्रवेश करना चाहिए, बकि गांधी स्पष्ट थे कि हड़ताल अहिंसक होनी चाहिए।

जब गांधीजी ने कांग्रेस नेता जॉर्ज थॉमस को ईसाई पृष्ठभूमि का हवाला देते हुए आंदोलन से अपना जुड़ाव खत्म करने के लिए कहा, और इसे एक अखिल हिंदू आंदोलन के रूप में पेश करने की आवश्यकता बतायी, तो पेरियार ने आपत्ति की। गांधी जी ने उसी तर्क का उपयोग करते हुए पंजाब से अकालियों के एक समूह को वापस भेजने का फ़ैसला किया, जो लंगर स्थापित करने और आंदोलनकारियों को मुफ्त भोजन सुनिश्चित करने के लिए वाइकोम पहुंचे थे। इसका कारण ये भी हो सकता है की गांधी जी नहीं चाहते हो की देश के लोगों में आपसी मतभेद पैदा हो और स्वतंत्रता आंदोलन कमजोर पड़ जाये। ख़ैर इस घटना के बाद पेरियार जो कुछ साल पहले तक महात्मा गाँधी के प्रबल समर्थक थे, ने इस विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व करने के लिए मद्रास राज्य काँग्रेस अध्यक्ष के पद से इस्तीफ़ा दे दिया। वे गांधी के आदेश का उल्लंघन करते हुए केरल चले गए।

त्रावणकोर पहुंचने पर पेरियार का राजकीय स्वागत हुआ क्योंकि वे राजा के दोस्त थे लेकिन उन्होंने इस स्वागत को स्वीकार करने से मना कर दिया। उन्होंने राजा की इच्छा के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन में भाग लिया, अंततः गिरफ़्तार किये गये और महीनों के लिए जेल में बंद कर दिए गए। उनकी पत्नी नागमणि ने भी महिला विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया। काँग्रेस सम्मेलन में जातीय आरक्षण के प्रस्ताव को पास करने के उनके प्रयास लगातार  असफल हो रहे थे। इस बीच एक रिपोर्ट सामने आई कि चेरनमादेवी शहर में काँग्रेस पार्टी के अनुदान से चलाए जा रहे सुब्रह्मण्यम अय्यर के स्कूल में ब्राह्मण और गैरब्राह्मण छात्रों के साथ खाना परोसते समय अलग व्यवहार किया जाता है। पेरियार ने अय्यर से सभी छात्रों से एक समान व्यवहार करने का आग्रह किया लेकिन न तो वो अय्यर को इसके लिए राजी कर सके और न ही काँग्रेस के अनुदान को रोक पाने में कामयाब हुए। इसलिए उन्होंने 1925 में काँग्रेस छोड़ने का फैसला किया और वो एक गैरब्राह्मण संगठनदक्षिण भारतीय लिबरल फेडरेशनजिसे जस्टिस पार्टी के नाम से जाना जाता था, के साथ जुड़ गये।

दरअसल जब 1916 में मद्रास प्रेसीडेंसी यानी आज के तमिलनाडु में द्रविड़ आंदोलन की औपचारिक शुरुआत हुई तभी 1916 में जस्टिस पार्टी की स्थापना भी हुई थी। उस समय जस्टिस पार्टी ने गैरब्राह्मण घोषणापत्र जारी किया, “ब्राह्मणवाद बनाम गैरब्राह्मणवादका संघर्ष ही इस घोषणापत्र का मूल स्वर था। मद्रास प्रेसीडेंसी में ब्राह्मणों का वर्चस्व किस कदर था, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 1912 में वहां ब्राह्मणों की आबादी सिर्फ 3.2 प्रतिशत थी, जबकि 55 प्रतिशत जिला अधिकारी और 72.2 प्रतिशत जिला जज ब्राह्मण थे। मंदिरों और मठों पर ब्राह्मणों का कब्जा तो था ही, जमीन की मिल्कियत भी उन्हीं लोगों के पास थी। इस प्रकार तमिल समाज के जीवन के सभी क्षेत्रों में ब्राह्मणों का वर्चस्व था. इस वर्चस्व को तोड़ने के लिेए ब्राह्मण विरोधी आंदोलन शुरू हुआ।

 1915-1916 के आसपास मंझोली जातियों की ओर से सी.एन. मुलियार, टी. एन. नायर और पी. त्यागराज चेट्टी ने जस्टिस आंदोलन की स्थापना की थी। इन मंझोली जातियों में तमिल वल्लाल, मुदलियाल और चेट्टियार प्रमुख थे। इनके साथ ही इसमें तेलुगु रेड्डी, कम्मा, बलीचा नायडू और मलयाली नायर भी शामिल थे। 1920 में मोंटेगचेम्सफोर्ड सुधारों के अनुसार मद्रास प्रेसीडेंसी में एक द्विशासन प्रणाली बनायी गई जिसमें प्रेसीडेंसी में चुनाव कराने के प्रावधान किए गये। इस चुनाव में जस्टिस पार्टी ने भाग लिया और एक गैरब्राह्मणों के नेतृत्व और प्रभुत्व वाली जस्टिस पार्टी सत्ता में आई। इस पार्टी के नेतृत्व में पहली बार तमिलनाडु में 1921 में सरकारी नौकरियों में गैर ब्राह्मणों के लिए आरक्षण लागू हुआ। लेकिन पेरियार जब इस पार्टी में शामिल हुए तो उन्होंने देखा कि जस्टिस पार्टी तमिलनाडु में ब्राह्मणों के राजनीतिक वर्चस्व को तोड़कर गैरब्राह्मणों के राजनीतिक वर्चस्व को तो कायम करना चाहती है, मगर अन्याय के अन्य रूपों के खिलाफ वह चुप रहती है जबकि वह एक ऐसे क्रांतिकारी बदलाव के लिए संघर्ष कर रहे थे जिसमें वर्चस्व और अन्याय के सभी रूपों का खात्मा हो जाए और ऐसी दुनिया का निर्माण हो जहां किसी तरह का अन्याय और शोषण न हो। उन्होंने 1925 में  एक आंदोलन शुरू किया जिसे उन्होंने आत्मसम्मानआंदोलन या सेल्फ रेस्पेक्ट मूवमेंट नाम दिया, जिसका लक्ष्य गैरब्राह्मणों में आत्मसम्मान पैदा करना था। यहाँ पर एक सवाल ये भी उठता है आख़िर तमिलनाडु में इतना ब्राह्मण विरोध क्यों हो रहा था?

इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी किताबमेकर्स ऑफ इंडियामें कहा है कि कैसे महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे राज्यों में ब्राह्मणों ने ब्रिटिश राज के शुरुआती दौर में सबसे ज्यादा फायदा उठाया। उन्होंने अंग्रेजी भाषा सीखी और शिक्षक, वकील, डॉक्टर और सिविल सेवक बन गये। समाज में भी उन्हें ऊंचा ओहदा प्राप्त था। वहीं राजनीतिक दृष्टि से भी ब्राह्मणों की अच्छी पकड़ थी। पेरियार ने अपने कुछ लेखों में समाज के कुछ वर्गों को हाशिए पर धकेलने वाली हिंदू धार्मिक प्रथाओं की आलोचना की। गुहा की किताब में पेरियार के कुछ भाषण दर्ज हैं जिसमें उन्होंने कहा, “भारत में आने के कुछ ही समय बाद ईसाइयों ने हमारे लोगों को एकजुट किया, उन्हें शिक्षा दी और खुद को हमारा स्वामी बना लियादूसरी ओर हमारा धर्म, जिसे भगवान द्वारा बनाया गया और लाखोंकरोड़ों साल पुराना कहा जाता है वो मानता है कि उसके अधिकांश लोगों को अपना धर्म ग्रंथ नहीं पढ़ना चाहिए. यदि कोई इस आदेश का उल्लंघन करता है, तो धर्मग्रंथ पढ़ने वाले की जीभ काटने, सुनने वाले के कानों में सीसा पिघलाकर डालने और सीखने वालों का हृदय निकाल लेने जैसे दंड दिए जाने चाहिए।”

आत्मसम्मान आंदोलनके अन्य उद्देश्य जाति, धर्म और भगवान से रहित एक तर्कसंगत समाज का निर्माण करना, महिलाओं और कम प्रतिनिधित्व वाले समूहों के लिए रोजगार में समानता और तेलुगु, मलयालम, कन्नड़ और तमिल जैसी द्रविड़ भाषाओं को विकसित करना शामिल था।ये आंदोलन जाति व्यवस्था से बिल्कुल अछूता था। पेरियार का कहना था कि जो आर्य ब्राह्मण संस्कृत बोलते थे और उत्तर भारत से आए थे, वही तमिल क्षेत्र में जातिवाद लाये। पेरियार ने हिंदी को अनिवार्य रूप से लागू करने के विरोध में एक मजबूत आंदोलन का समर्थन किया। साथ ही तमिल क्षेत्र में हिंदी को अनिवार्य करनाउत्तर भारतीय साम्राज्यवादस्थापित करने की कोशिश भी बताया। पेरियार को 1938 में जस्टिस पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया, ऐसे में वो आत्मसम्मान आंदोलन और जस्टिस पार्टी को साथ ले  आये जिसे 1944 में द्रविड़ कषगम या कड़गम (DK) नाम दिया गया. डीके ब्राह्मण, आर्य और कांग्रेस का विरोध और तमिल राष्ट्र की मांग करती थी। हालांकि इसे जनता का ज्यादा सपोर्ट नहीं मिला जिसके चलते धीरेधीरे ये मांग कम हो गई.

पेरियार ने अपनी पत्रिकाकुदी आरसूमें 20 अक्टूबर 1945 को लिखा किदेश में बहुत सारे आंदोलन चल रहे हैं, कांग्रेस पार्टी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष कर रही है। जस्टिस पार्टी ब्राह्मणों के राजनीतिक वर्चस्व के खिलाफ संघर्ष कर रही है। आदि द्रविड़ पार्टी उच्च जातीय हिंदुओं के वर्चस्व के खिलाफ संघर्ष कर रही है और वर्कर्स पार्टी पूंजीपतियों के वर्चस्व के खिलाफ संघर्ष कर रही है। इस तरह हर एक पार्टी का उद्देश्य वर्चस्व के किसी एक रूप का खात्मा करना है लेकिन, यदि कोई पार्टी वर्चस्व के सभी रूपों के खिलाफ एक साथ संघर्षरत है, तो वह आत्मसम्मानआंदोलन है। पेरियार धर्म को प्रभुत्व और अन्याय का पोषक मानते थे। वह सभी धर्मों को खारिज करते हुए विज्ञान और बुद्धिवाद का समर्थन करते। वह धर्माचार्यों और विज्ञान के समर्थक बुद्धिवादियों की तुलना करते हुए लिखते हैं, “धर्माचार्य सोचते हैं कि परंपराप्रदत्त ज्ञान ही एकमात्र ज्ञान है; उसमें कोई भी सुधार संभव नहीं है। अतीत को लेकर जो पूर्वाग्रह और धारणाएं प्रचलित हैं, वे उसमें किसी भी प्रकार के बदलाव के लिए तैयार नहीं होते। पेरियार ने गैरद्विजों और महिलाओं से आह्वान किया कि वेउस ईश्वर को नष्ट कर दें, जो तुम्हें शूद्र कहता है। उन पुराणों और महाकाव्यों को नष्ट कर दो, जो हिंदू ईश्वर को सशक्त बनाते हैं।

उनका मानना था किहिंदूधर्म और जातिव्यवस्था नौकर और मालिक का सिद्धांत स्थापित करते हैं। पेरियार ने धर्मग्रंथों के विरोध के लिए केवल कहा नहीं, बल्कि अपने अनुयायियों के साथ ऐसा किया भी। उन्होंने मनुस्मृति और रामायण को जलाया।  उन्होंने रामायण का एक मुकम्मल पाठरामायण पादीरंगलप्रस्तुत किया जो 1959 में अंग्रेजी भाषा में मेंद रामायण : अ ट्रू रीडिंगशीर्षक से प्रकाशित हुआ. इसका हिंदी अनुवाद 1968 मेंसच्ची रामायणके नाम से ललई सिंह यादवपेरियारने प्रकाशित किया; जिसका अनुवाद राम आधार ने किया था। पेरियार की नजर में रामायण कोई धार्मिक किताब नहीं बल्कि  एक राजनीतिक ग्रंथ है; जिसका उद्देश्य आर्यों का अनार्यों पर, ब्राह्मणों का गैरब्राह्मणों पर, पुरुषों का महिलाओं पर वर्चस्व और वर्चस्व के अन्य रूपों को न्यायसंगत ठहराना है। सच्ची रामायण की भूमिका में पेरियार लिखते हैं, “इनके मूल आख्यानों का सावधानी से विश्लेषणात्मक अध्ययन किया जाए, तो पता चलता है कि जो भी घटनाएं हुईं, वे असभ्य और बर्बर थींऔर इनकी कथाओं को इस तरह से लिखा गया है कि ब्राह्मण दूसरों की नजर में महान दिखें; महिलाओं को दबाया जा सके और उनको दासी बनाया जा सके. इनका उद्देश्य उनकी रूढ़ियों और मनु की संहिता को समाज में लागू कराना है।

पेरियार महिलाओं के शिक्षा प्राप्त करने, काम करने, अपने ढंग से जीने और प्यार करने के अधिकार के जबरदस्त समर्थक थे। इस मुद्दे पर उनके विचार इतने क्रांतिकारी थे कि द्रविड़ कड़गम के उनके कई घोर समर्थकों को भी वे रास नहीं आये और इसलिए पार्टी ने न तो उनका प्रचार किया और न ही उनके अनुरूप आचरण। आजादी के बाद पेरियार ने चुनाव लड़ने से मना कर दिया, वहीं 1949 में पेरियार के सबसे करीबियों में से एक सीएन अन्नादुरई वैचारिक मतभेदों के कारण उनसे अलग हो गये उन्होंने पार्टी को विभाजित कर 1949 में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) का गठन किया जो चुनावी प्रक्रिया में शामिल हुई। मद्रास प्रांत में ग़ैरकांग्रेसवाद को अन्नादुरई के नेतृत्व में ही पहली सफलता प्राप्त हुई। 1967 में डीएमके की सरकार बनी। अन्नादुरई के प्रयास से मद्रास प्रांत का नाम तमिलनाडु हुआ। अन्नादुरई के बाद एम करुणानिधि ने डीएमके की कमान संभाली। दक्षिण भारत के प्रसिद्ध अभिनेता एमजी रामचंद्रन (MGR) भी इसी पार्टी में थे, लेकिन बाद में करुणानिधि और MGR में भी मतभेद हो गये। इसके चलते MGR ने अपनी नई पार्टी बनाईअखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम MGR ने अपनी पार्टी की विचारधारा के रूप में लोककल्याणवाद को चुनाव। इससे डीके का मूल तर्कवाद और ब्राह्मण विरोधी एजेंडा कहीं कहीं कमजोर पड़ गया। 1977 में MGR सीएम बने। MGR के बाद उनके उत्तराधिकारी के रूप में जयललिता सत्ता में आईं, जो पार्टी की नीतियों पर ही आगे बढ़ीं और तमिलनाडु की सीएम बनीं।

1970 में यूनेस्को ने पेरियार कोदक्षिणपूर्व एशिया का सुकरातघोषित किया। 24 दिसंबर 1973 को 93 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। 

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