आज 5 सितम्बर है, इस दिन को पूरे देश में ‘शिक्षक दिवस’ (Teachers Day) के रूप में मनाया जाता हैं। इस दिन भारत के दूसरे राष्ट्रपति डॉ॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन (Dr. Sarvepalli Radhakrishnan) का जन्म हुआ था। साल 1962 के समय डॉ॰ राधाकृष्णन ने जब राष्ट्रपति का पद संभाला तो उनके कुछ छात्र उनके पास पहुँचे और अनुरोध किया कि आपके जन्मदिन को हम सभी एक विशेष दिन के तौर पर मनाना चाहते हैं। जिस पर उन्होंने छात्रों से कहा कि समाज में शिक्षकों के द्वारा दिए गए योगदान को बताने के लिए आप सभी मेरे जन्मदिन के दिन को शिक्षक दिवस के रूप में मना सकते हैं। यानि डॉ॰ राधाकृष्णन ने ही खुद अपने जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने की सलाह दी! इस बारे में विगत कुछ सालों से एक नया विवाद खड़ा हो गया है। कई विचारक, एक्टिविस्ट, राजनेता और ख़ासकर दलित चिंतक ये सवाल उठाते आ रहे हैं कि शिक्षक दिवस राधाकृष्णन के नाम पर क्यों मनाया जाना चाहिए, पहली महिला शिक्षिका सावित्री बाई फुले (Savitri Bai Phule) के नाम पर क्यों नही?
जब हमने इस पर दिल्ली यूनिवर्सिटी (Delhi University) के प्रोफेसेर रतन लाल से बात की उन्होंने कहा कि राधाकृष्णन के नाम पर शिक्षक दिवस मनाया जाना एक जातिवादी मानसिकता को दर्शाता है। शिक्षक दिवस उनके नाम पर कैसे मनाया जा सकता है? जिनकी PHD की डिग्री पर विवाद हो! वहीं प्रोफेसर रतन लाल ने सावित्री बाई फुले पर कहा कि उन्होंने पुणे में जिस विद्यालय की स्थापना की थी वह आज खंडहर बन चुका है, उसे राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया जाना चाहिए।
दलित-बहुजन चिंतकों (Dalit-Bahujan Thinkers) के मुताबिक पहला नाम सावित्री बाई फुले का आता है। जो भारत की प्रथम महिला शिक्षिका, समाज सुधारिका एवं मराठी कवियत्री थीं। वहीं जब हमने जब जामिया मिलिया इस्लामिया (Jamia Millia Islamia University) की हिन्दी विभागध्यक्ष एवं दलित चिंतक डॉ. हेमलता महिश्वर से बात की तो उन्होंने कहा कि इसको मैं और गहराई से देखना चाहूँगी। शिक्षा शब्द की उत्पत्ति क्या है? संस्कृत भाषा की ‘शिक्ष्’ धातु में ‘अ’ प्रत्यय लगाने से बना शिक्षा बना यह तो व्याकरण हुआ लेकिन इसके पहले भी यह शब्द हमको पाली में दिखाई देता है और वहाँ सिक्खा पदं चलता है। जो सिक्खा पदं समादियामि इन पाँच शीलों में बार-बार सीखना या उपदेश देना यानि जो आपको अच्छे काम करने के लिए प्रेरित करे वो शिक्षा है। शिक्षा का अर्थ हुआ आपको सीखाना या उपदेश देना। यदि कोई कोरे उपदेश दे रहा है तो वह किसी काम के नही है मैं उसे शिक्षक नही मानती, जब किताबी ज्ञान के साथ अनुभव सिद्ध और न केवल वाचिक, काइक (आपको वो अपने कर्मों से भी शिक्षा देने लगता है) मैं उसको वास्तविक रूप से शिक्षक मानती हूँ। शिक्षक वो है जो न केवल किताबी ज्ञान के माध्यम से उपदेश दे रहा हो, उसके मनसा-वाचा-कर्मणा या उसके व्यक्तित्व में कोई अंतर दिखाई न दे। अगर हम शिक्षा को इस तरह देखते है तो सावित्री बाई फुले बहुत ऊँचे स्तर पर हैं। पुणे शहर में महा ब्राह्मणवाद हावी था, ज्योतिबा फुले द्वारा ऐसे में शास्त्रों के, मनुस्मृति के विरुद्ध जा कर शिक्षा प्राप्त करना और अपनी जीवनसाथी को शिक्षित करना एक महान कार्य था। 19वीं सदी में सावित्री बाई ने लगभग अठारह महिला स्कूलों की स्थापना कर दी थी। जो उस विरोधी माहौल में, जो उस विरोधी माहौल था ब्राह्मणवाद की नाक के नीचे यह करना मामूली बात नही है और जो अंग्रेज सरकार थी, उसका इनको ज़बरदस्त समर्थन था। यदि इनको समर्थन नही मिलता तो यह कार्य बहुत मुश्किल होता। सावित्री बाई फुले का काम राधाकृष्णन के काम की अपेक्षा में बहुत बड़ा है। जो उन्होंने महिलाओं के लिए किया, विधवा आश्रम खोले (अपने घर को ही विधवा आश्रम बना दिया), इस सबके लिए उनको तरह – तरह से नीचा दिखाया गया (उन पर थूका गया और गोबर भी फेंका गया) पत्थर फेंकना तो बहुत छोटी बात है। उस समय वह स्कूल में आ कर कपड़े बदल कर बालिकाओं को पढ़ाती थी तो राधाकृष्णन के अपेक्षा में सावित्री बाई फुले के जन्मदिवस पर ही शिक्षक दिवस मनाया जाना चाहिए, जिसकी हम कई सालों से माँग भी कर रहे हैं।
सावित्री बाई फुले महाराष्ट्र के सतारा जिले के नयागांव में एक दलित परिवार में 3 जनवरी 1831 को जन्म हुआ और 18वीं सदी में उस वर्ग के लिए सोचा जिसको आज़ादी के पहले तक हमेशा दोयम दर्जा दिया गया या समझा गया, जी हाँ उन्होंने महिलाओं के सुधार के लिए कार्य किया। उन महिलाओं के बारे में जिनको 18वीं सदी में विद्यालय तक जाने की अनुमति नही थी या जाने की सोचना भी पाप माना जाता था। ऐसे समय में सावित्री बाई फुले ने जो कर दिखाया वह कोई साधारण बात नहीं है। सावित्री बाई फुले जब स्कूल पढ़ने जाती थीं तो लोग उन पर पत्थर फेंकते थे। यह सब होने के बाद भी वह अपने लक्ष्य से कभी नहीं भटकीं और उन्होंने बालिकाओं व महिलाओं को शिक्षा का हक दिलाया। उन्हें आधुनिक मराठी काव्य का अग्रदूत माना जाता है। भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्री बाई ने अपने पति समाजसेवी महात्मा ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर सन 1848 में उन्होंने बालिकाओं के लिए एक विद्यालय की स्थापना की थी।
सावित्री बाई फुले ने 3 जनवरी 1848 अपने जन्मदिवस के दिन पुणे में अपने पति के साथ मिलकर विभिन्न जातियों की नौ छात्राओं के साथ महिलाओं के लिए पहले स्कूल की स्थापना की। एक वर्ष में सावित्री बाई और महात्मा फुले पांच नये विद्यालय खोलने में सफल हुए और तत्कालीन सरकार ने सम्मानित भी किया। एक महिला प्रधानाचार्या के लिए सन् 1848 में बालिका विद्यालय चलाना कितना मुश्किल रहा होगा, इसकी कल्पना शायद आज भी नहीं की जा सकती। लड़कियों की शिक्षा पर उस समय सामाजिक पाबंदी थी। सावित्री बाई फुले उस दौर में न सिर्फ खुद पढ़ीं, बल्कि दूसरी लड़कियों के पढ़ने का भी बंदोबस्त किया।
सावित्री बाई फुले ने केवल महिलाओं एवं बालिकाओं के लिए कार्य किया बल्कि देश में विधवा महिलाओं की दशा को सुधारने के लिए भी 1854 में विधवा आश्रय गृह खोले। उनके इस आश्रय गृह में निराश्रित महिलाओं, विधवाओं और उन बाल बहुओं को जगह मिलने लगी। इसके बाद उन्होंने इस संस्था में आश्रित एक विधवा महिला के बेटे यशवंतराव को भी गोद लिया और समाज की रूढ़ियों को तोड़ डाला।
ज़ाहिर है सावित्री बाई फुले ने समाज के उन तबकों को शिक्षा के अवसर मुहैया करवाए, जिनके लिए उस वक़्त ये सोच पाना भी मुश्किल था। सावित्री बाई फुले का पूरा जीवन शिक्षित समाज के निर्माण हेतु संघर्ष में खप गया और संघर्षरत जीवन अपने आप में एक शिक्षण संस्थान है। कहना ग़लत न होगा कि भयंकर रूप से जातिवादी और महिला-विरोधी समाज को सावित्री जैसी शिक्षिका मिलें, तो स्थितियाँ सुधर सकतीं हैं।