बहुजन विचारधारा की नींव
बहुजन राजनीति समाज के वंचित और शोषित समाज को हर स्तर पर सम्मान और भागीदारी देने की विचारधारा है।कई पार्टियाँ बहुजन विचारधारा पर चलने का दावा करती हैं लेकिन सवाल ये है कि इनकी पहचान कैसे की जा सकती है? क्या केवल नेतृत्व के आधार पर यह पहचान की जा सकती है? मसलन मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री मोहन यादव हैं और उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि पिछड़े वर्ग की है लेकिन क्या इससे उनकी पार्टी भाजपा बहुजन विचारधारा की पक्षधर मानी जा सकती है? जबकि हिंदुत्व अगर मनुवादी वर्चस्व का नाम है, तो बहुजन विचारधारा इसे उलटने का। बिहार में नीतीश कुमार मुख्यमंत्री है जो पिछड़े वर्ग की पृष्ठभूमि के हैं लेकिन भारतीय जनता पार्टी के साथ सरकार में हैं। कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, और वामदलों के समर्थन से भी वो सरकार बनाते रहे हैं।इसके अलावा कई ऐसी पार्टियां हैं जो कि किसी एक या दो पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों के बीच अपना आधार बनाकर इधर-उधर के चुनावी गठबंधन का हिस्सा बनना चाहती हैं। ऐसे में बहुजन राजनीति के सामने दो अहम सवाल हैं। क्या बहुजन पार्टियां के लिए विचारधारा का कोई महत्व नहीं है जो वे हिन्दुत्व के साथ खड़ी नज़र आती हैं? दूसरा ये कि क्या बहुजन नाम पर चलने वाली पार्टियों में इस कदर आगे निकलने की होड़ है कि वे विचारधारा के साथ समझौता करने से भी नहीं हिचकतीं?बहुजन राजनीति और विचारधारा को शिखर पर ले जाने वाले डॉ.अंबेडकर ने हिंदुत्व और हिंदूराज की कल्पना को लोकतंत्र, खासतौर पर दलित समाज के लिए विपत्ति करार दिया था। इसलिए बहुजन राजनीति के लिए हिंदुत्ववादियो से संघर्ष पहला लक्ष्य है। हिंदुत्व के पोषक इस खतरे को समझते हैं इसलिए भावनात्मक मुद्दों, शब्दावली और प्रतीकों का इस्तेमाल करके दलितों, वंचितों को छद्म गौरवबोध देते हैं जबकि असल मसला शासन-प्रशासन में उनकी भागीदारी का है। राष्ट्रपति से लेकर मुख्यमंत्री तक की जाति बताकर दलितों, पिछड़ों को अपने पक्ष में लाने के लिए कोशिश की जाती है लेकिन न वंचित तबके की महिलाओ के साथ बलात्कार उनके लिए मुद्दा होता है और न आरक्षण खत्म होना। हाथरस रेप कांड और हाल ही में रामपुर में बाबा साहब अम्बेडकर की मूर्ति को लेकर हुए विवाद में एक दलित बच्चे की पुलिस की गोली से हुई मौत इसका उदाहरण है।
हिंदुत्ववादी बीजेपी ख़त्म कर रही बहुजन भागीदारी
हिंदुत्ववादी बीजेपी दलित पिछड़े जातियों के नेताओं को पद देकर विचारधारा का मसला पीछे करने का प्रयास करती है। बीजेपी को लगता है कि ऐसा करने से उस नेता की जाति के वोट उसे मिल जायेंगे। अगर समाज विचारधारा से ज़्यादा व्यक्ति को महत्व देगा, तो ऐसा होगा भी। बीजेपी चाहती है कि जाति उत्पीड़न और भागदीरी का सवाल न उठे और सभी हिंदू बनकर चुनाव में वोट डालें। लेकिन जब सवाल शासन-प्रशासन में भागीदारी और आरक्षण के साथ होने वाले खिलवाड़ का आता है तो वह चुप्पी साध लेती है। यानी दलित, पिछड़े आदिवासी सिर्फ चुनाव में वोट देते वक्त ही हिदू होते हैं। पुरानी पेंशन समाप्त करने से लेकर अग्निवीर योजना लागू करने तक का सबसे ज़्यादा नुकसान बहुजन समाज को ही हुआ लेकिन बीजेपी के साथ जाने वाले पिछड़ी और दलित जातियों के नेताओं का मुँह सिला रहा। फिर चाहे वो नीतीश कुमार हो, चाहे चिराग पासवान, चाहे जीतनराम मांझी हों, या रामदास आठवले।
हिन्दुवादी दिखने की होड़ और बीजेपी सत्ता में पद की चाह
अगर हिंदुत्व की राजनीति हर तबके की विचारधारा के बीच एक प्रतिस्पर्धा पैदा कर सकती है तो बहुजन राजनीति की विचारधारा राजनीतिक पार्टियों के बीच एक जवाबी प्रतिस्पर्धा खड़ी क्यों नहीं कर सकती? बिलकुल कर सकती है और बहुजनों को ये आत्मविश्वास सबसे पहले जरूरी है बाद में कुछ और। इसका एक ताज़ा उदाहरण देखना है तो जाति आधारित गणना के मुद्दे को देख सकते हैं। ये एक ऐसे मुद्दे के रूप में उभरकर आया है कि बीजेपी को छोड़कर लगभग सभी पार्टियां इसका समर्थन करने के लिए आगे आ रही हैं ।आज बहुजन नेता भी खुद को एक सच्चा हिंदू सिद्ध करने की होड़ में लगे हुए हैं , वो दौर आना चाहिए जहां बहुजनो के हित की सिर्फ़ बात ना हों , उस दिशा में काम भी हो ,सिर्फ़ डमी राष्ट्रपति और मुख्यमंत्री नहीं चाहिए ।कर्नाटक की जीत में जाति गणना के समर्थन की अहम भूमिका रही थी।क्योंकि ये इल्म सबको हो रहा है कि अल्पमत का बहुमत पर शासन नहीं होना चाहिए।अल्पमत एक मजबूत केन्द्र बनाकर बहुमतों के बीच आंतरिक विवाद पैदा करने की मशीन तैयार करने में ही व्यस्त बना रहता है। वह समाज निर्माण की जिम्मेदारी से अलग हो जाता है।
बहुजन राजनीति की चुनौतियां और बहुजनों के ख़िलाफ़ बढ़ते अत्याचार
बहुजन राजनीति के सामने जो चुनौतियां हैं, उसमें बहुजन राजनीति के कई नेताओं या उनके परिवारजनों को व्यक्तिगत तौर पर नुकसान होने की आशंका हो सकती है। लेकिन बहुजन राजनीति का जो दबाव संसदीय राजनीति के अंदर बना हुआ है, उसे मजबूत करना बहुजन राजनीति का लक्ष्य होना चाहिए और यही 2024 का भी लक्ष्य होना चाहिए। उत्तर प्रदेश के दलितों की हत्याएं होती रहीं, ओबीसी आरक्षण को निगला जाता रहा, अधिकारियों की तैनाती में दलितों, ओबीसी और अल्पसंख्यकों को इग्नोर किया जाता रहा , बेरोजगार पीटे जाते रहे मगर बहुजनों के नेता, हिंदुत्व को स्थापित करने में अपना मौन समर्थन देते रहे। ऐसे नेताओं का बहिष्कार करना होगा।मायावती से अब बहुजनों की कोई उम्मीद नहीं है। वो राष्ट्रवादी पार्टी के करीब हैं और उनका छिपा समर्थन सत्ता पक्ष को मिला हुआ है जो आने वाले लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में इंडिया गठबंधन के वोट काटने का काम करेगा जिसका सीधा फ़ायदा भाजपा को मिलेगा।बहुजनों ने हाल के वर्षों में नंगी आंखों से अपनी हकमारी देखी है। बहुजन युवाओं का अपमान देखा है,हाथरस और उन्नाव को देखा है, आजमगढ़ का उत्पीड़न देखा है। अनारक्षित और आर्थिक रूप से कमजोर तबके ईडब्ल्यूएस की सीटों को सवर्ण आरक्षण के रूप में बदलते देखा है, उसने ओबीसी और दलितों को शिक्षण संस्थाओं, पीएचडी, पद और पुरस्कारों से वंचित किये जाते देखा है। प्रोमोशन में आरक्षण को खत्म होते देखा है तो सामान्य सीटों से आरक्षित वर्ग को बाहर करते देखा है। इसने बेहतर अंक पाकर भी नॉट फाउंड सुटेबल (एनएफएस) देखा है। अपने स्वाभिमान को कुचले जाते देखा है और ये सब होते हुए वर्ण व्यवस्था के समर्थकों का अट्टहास भी बहुजनों ने देखा है और सुना है। लेकिन अब बहुजन किसी की छड़ी से हांके जाने को तैयार नहीं है।
काशीराम ने की थी बहुजन विमर्श की शुरुआत
कभी उत्तरप्रदेश में काशीराम जी ने बहुजन विमर्श की शुरुआत की थी। मंडल बनाम कमंडल आंदोलन ने बहुजन युवाओं को लड़ने की ऊर्जा दी मगर बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी में घुस आए वर्णवादियों ने, दोनों का वैचारिक पतन कर दिया। दोनों नाम मात्र को बहुजन या समाजवादी रह गए और इस तरह एक स्वर्णिम अवसर खत्म हो गया। याद कीजिये वो नारा- हाथी चले किनारे, साइकिल चले इशारे। वो मिलन जब भंग हुआ तो कार्पोरेट से लेकर सामंतों को बड़ी राहत मिली। तब से बहुजन राजनीतिक ऊर्जा न केवल बिखरी हुई है, वो गौरी, गणेश, परशुराम और फरसा तक जा पहुंची है। 80-90 के दशक में गाँव-गाँव में बहुजन युवा बीएससी, एमएससी कर रहे थे, आज बहुजन युवा, इंटर की पढ़ाई भी ठीक से नहीं कर पा रहे, अराजक तत्वों द्वारा इस्तेमाल हो रहे हैं। कांवड़ ढो रहे हैं। सबको राजनीतिक चस्का लग गया है, पर एजेंडा ग़ायब है। केवल राजनीति बचा हुआ है। ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया, भूमिहार कहां कह रहा है कि मोदी प्रधानमंत्री है तो हमको कष्ट है। उसे लगता है कि उसका एजेंडा तो आगे बढ़ा ही रहा है। सारे संसाधनों पर उनका क़ब्ज़ा हो रहा है, वहीं दलित पिछड़ों में कोई नेता हो जाये तो वो सिर्फ़ नेता होने में ही खुश है। भले उसका स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी सब खत्म कर दिया जा रह हो।”
फ़ासीवाद की मज़बूत होती जड़ें
जनता के पास दुविधा इसलिए है क्योंकि वो नेता के पास सामाजिक एजेंडा लेकर नहीं जाते हैं बल्कि व्यक्तिगत कार्य के लिए जाते हैं। अगर पूरा का पूरा गांव नेता का बहिष्का कर दे कि वो उनको घुसने नहीं देंगे अपने क्षेत्र में तो पोलिटिकल क्लास पर एक दबाव बनेगा।अगर 10 जगह इस तरह से बहिष्कार हो जाये तो नेता पर प्रेशर आएगा। नहीं तो नेता भी कुछ लोगों के ट्रांसफर, पोस्टिंग, एडमिशन, ठेका, आदि व्यक्तिगत काम करवाकर आपको चलता करेगा। आज भारत के लिए सामाजिक आधुनिकता तक पहुंचना निहायत ज़रूरी है, इसके बिना इंसाफ़ और तरक्की दोनों की मुहिम नाकाम रहेगी और संघ परिवार के फासीवाद की जगह कोई दूसरा फासीवाद स्थान ग्रहण कर सामाजिक पीड़ा निरंतर देता रहेगा।